सुनील नामदेव नई-दिल्ली
दिल्ली/रायपुर : छत्तीसगढ़ का राजनैतिक तूफान किस ओर लैंड करेगा यह अब तक तय नहीं हो पाया है, बताते है कि तूफान की दिशा तय करने के लिए साहब का सतना दौरा रंग लाता दिख रहा है। राजनीति के नए डॉक्टर दारुवाला के योग-भोग और तंत्र मंत्र अपना असर दिखाने लगे है, इसके चलते “गब्बर सिंह” की कुर्सी पर मंडराता संकट पलायन करता हुआ नजर आ रहा है। मध्यप्रदेश के सतना में गब्बर सिंह से मेल-मुलाकात करने वाले कुछ तांत्रिक अब ऐसा दावा करने लगे है, उनका मानना है कि “केके” के उल्टे सीधे तंत्र मंत्र से दस्यु सुंदरी जेल की हवा खा रही है, वहीं उसकी करतूतों से दस्युराज, मुश्किल में है। राजनीति के गब्बर सिंह को बचाने के लिए कई साधु-संतो के अलावा तांत्रिको का अमला जुटा है।
उधर गब्बर सिंह और उसकी टोली को धर-दबोचे जाने को लेकर IT-ED और NIA-CBI-DRI जैसे भारत सरकार की महत्वपूर्ण एजेंसियों ने इस राज्य में डेरा डाला हुआ है। गब्बर सिंह गिरोह खलबली के दौर में है, आधे जेल में,,आधे बेल में अपनी-अपनी मुहीम को अंजाम देने में जुटे है। कोई 36 हजार करोड़ के नॉन-घोटाले का कुख्यात सरगना है, तो कोई हजारों करोड़ के कोल खनन परिवहन और आबकारी घोटाले का ख़िदमदगार।
इस बीच सेक्स सीडी कांड और चार सौ बीसी के अपराधों को रफा-दफा करने में जुटी गैंग के कारनामे भी जनता की अदालत में सुर्खियों में है। परम्परागत गब्बर सिंह का नया ठिकाना बीहड़ो के अवैध इलाको से क़ानूनी प्रावधानों के तहत राजधानी के नामचीन इलाको में सरकारी खर्च पर बनाये जाने के सरकारी फरमान है।
देश में पत्रकारिता का झंडा-डंडा पकड़ कर पत्रकार सुनील नामदेव ने नक्सलियों के पैठ वाले इलाको की खाक छानी, तो चम्बलों के बीहड़ो में रात गुजार कर दस्युराज का जायजा भी लिया। जंगल के भीतर नक्सलियों के ठिकाने हो या फिर चम्बल की घाटियों में डकैतों की शरण स्थली, पत्रकार ने हर उस मिट्टी की सुगंध और पानी से अपनी भूख प्यास मिटाई है, जहां से बगावत और क्रांति का बिगुल फूका गया था।
पत्रकारिता के अपने 33 सालों के सफर में इस पत्रकार ने पश्चिम बंगाल की उस मरू भूमि का पानी भी पीया, जहां चारु मजूमदार ने नक्सलवाड़ी को नक्सलवादी की राह पकड़ा दी, तो मशहूर डकैत माखन सिंह और मलखान सिंह ने अपने परोपकारों से गांव की गांव बसाए।
कभी चम्बल के बीहड़ो में आतंक का पर्याय बन चुके ऐसे सैकड़ो वन ग्राम आज चुनी हुई सरकार के दौर में विकास की गाथा का गौरवगान कर रहे है, यही हाल उन गांव कस्बो का है,जहाँ कभी नक्सलवाद की जड़े फली-फूली थी। आज वे आधुनिक भारत के प्रगति के नमूना वाले ऐसे चिन्हित इलाके है, जहां रोटी, कपडा और मकान बुनियादी समस्या नहीं बल्कि नई पीढ़ी को नशा मुक्त रखने का बीड़ा उठाकर उन्हें योग्य और जिम्मेदार नागरिक बनाया जा रहा है। वहीं अब छत्तीसगढ़ के क्रांक्रीट के जंगल नये दौर में चंबल के बीहड़ो की याद दिला रहे है।
प्रजातंत्र के कई परोपकारी नेताओं-डकैतों ने इस उर्वजा भूमि को अपनी निजी आय का साधन बना लिया है। उनकी कार्यप्रणाली से कही बेहतर चम्बल के डकैतों की “कार्यसिद्धि” आंकी जा सकती है। देश की विश्वसनीय शोध शालाओं में चम्बल के डकैतों में परोपकार की भावना पर कई रिसर्च हुई है। शोध बताता है कि कमोबेश सरकारी पटल में घोषित डकैतों की कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था। प्रत्यक्षं किम प्रमाणम,छत्तीसगढ़ में अखिल भारतीय सेवाओं के कई IAS,IPS और IFS अफसरों में परोपकार की भावना पर जनहित में रिसर्च की आवश्यकता महसूस की जा रही है। देश प्रदेश के होनहार इसमें दिलचस्पी ले रहे है।
सरकार की प्रत्येक योजनाओं को अंतिम व्यक्ति तक पहुचाये जाने की जिम्मेदारी भारत सरकार और छत्तीसगढ़ शासन दवारा नियुक्त उस प्रत्येक लोक सेवक की है, जिसके वेतन भुगतान सरकारी तिजोरी से किये जा रहे है। टैक्स पेयर रोजाना लाखो-करोड़ो रूपए सरकारी तिजोरी में जमा कर रहे है वही दूसरी ओर कई अधिकारी और राजनेता उस पर हाथ साफ कर रहे है। सरकारी दफ्तरों में वैधानिक कार्य के लिए चक्कर काटते, जूतियां घिस जाती है, फिर भी संतोषजनक कार्य राह तकता है, जबकि अवैधानिक कार्य घर बैठे, अपने बंगलो से ही संपन्न कर दिए जा रहे है।
राज्य में सरकारी मशीनरी जाम कर गब्बर सिंह टैक्स वसूला जाता है, अधिकारी अवैध वसूली में इस गिरोह के हमसफ़र बन जाते है, जनकल्याण के दावे के साथ जनता की गर्दन पर कानून का डंडा रख मुंह मांगी रकम वसूली की जाती है। सरकारी डकैतों पर नकेल कसने के बजाय मुख्यमंत्री बघेल और उनका गिरोह सुनील नामदेव जैसे दर्जनों पत्रकारों पर कहर बनकर टूटता है, उनके घरों पर बुलडोजर चलाये जाते है।
छत्तीसगढ़ पुलिस, क़ानूनी प्रावधानों का पालन किये बगैर ही सुनील नामदेव जैसे दर्जनों पत्रकारों के खिलाफ फर्जी मुकदमे दर्ज कर उन्हें जेल में ठूंस देती है, लोकतंत्र की दुहाई देकर राज्य का मुख्यमंत्री पत्रकार सुरक्षा कानून का ढोल पीटता है, वहीं उसका वैधानिक दस्ता हर वो गैर क़ानूनी कार्य करता है, जो कानून की पुस्तक में गंभीर अपराधों के दायरे में है। पौने पांच सालों में यही गब्बर सिंह गिरोह पुलिस से लेकर अदालत तक कई निर्दोषो को सूली पर टांग रहा है, इसी गिरोह के इशारो पर न्याय पालिका के कई जज अन्याय का सौदा कर रहे है। अदालतों से लेकर जांच एजेंसियो के गलियारों में अन्याय के सौदागरों के मामले बंद लिफाफे में न्याय के देवता को मुँह चिढ़ाते है।
छत्तीसगढ़ जैसे महान प्रदेश की पीड़ित जनता की गुहार सुनने के बजाय अखिल भारतीय सेवाओं के कई अधिकारी क्रांक्रीट के जंगलो से ठंडी बस्तियों की ओर पलायन कर रहे है। जनता भरी गर्मी में त्राहिमाम-त्राहिमाम कर रही है, लोकतंत्र का राजा अपनी मस्ती में है, रोम जल रहा है, नीरो बांसुरी बजा रहा है।
प्रदेश की मौजूदा हालत चम्बल के बीहड़ो की तरह नजर आने लगी है, डकैतों और कई सरकारी अधिकारियों की कार्यप्रणाली एक सी है, उसमे फर्क करना मुश्किल है, अधिकारियों के कर्तव्य बताते है कि वे बेईमान है, संविधान अनुरूप परोपकार की भावना भी उनके भीतर नहीं है, यही तथ्य चम्बल के डकैतों को छत्तीसगढ़ कैडर के दागी अफसरों से कहीं ज्यादा बेहतर साबित करता है।
रायपुर की जिला अदालत से लेकर देश की शीर्ष अदालत, सुप्रीम कोर्ट में ऐसे अधिकारियों का काला चिट्ठा मौजूदा दौर की कानून व्यवस्था में सेवा के धंधे की बानगी पेश रहा है। जबकि चम्बल के घोषित डकैतों के परोपकार से जन्म लेने वाले सैकड़ो गांव कस्बो में उनकी परोपकार की भावना के चर्चे उनके सार्वजनिक जीवन के जीवंत जमीनी प्रमाण है।
अदालत से लेकर पुलिस के रिकॉर्ड में उन दर्जनों डकैतों की परोपकार की भावना का भी जिक्र है, जिसके चलते कभी उन्होंने बगावत की, क्रांति का बिगूल फूंका, लूटपाट और हिंसक वारदातों को भी अंजाम दिया और जनकल्याण के कार्य ख़त्म होने पर आत्म समर्पण भी कर दिया। ऐसे डकैतों ने परोपकार की भावना से कभी भी नाता नहीं तोडा, उसे अपने दिलो-दीमाग में जरूर रचाये-बसाये रखा ।
छत्तीसगढ़ कैडर के कई अधिकारी चम्बल के डकैतों से ज्यादा खतरनाक साबित हो रहे है, उनकी कार्यप्रणाली की उच्च स्तरीय जांच बेहद जरुरी बताई जाती है। अपराध शास्त्र के कई शोध भी साबित करते है कि अनपढ़ और गैर पढ़े लिखे या कम पढ़े-लिखे अपराधियों से कहीं ज्यादा खतरनाक, पढ़ा-लिखा “शख्स” होता है, राज्य के सरकारी सिस्टम में ऐसे अफसरों की भरमार है, वे ही चलन में है, जो बेईमानी का कार्य भी पूरी ईमानदारी के साथ अंजाम दे रहे है।
वही दूसरी ओर नियमों कायदे कानूनों का पालन करने वाले नौकरशाहो को जंगल के बेड़े में ठिकाने लगा दिया गया है। ऐसे शातिर अधिकारियों पर वैधानिक कार्यवाही को लेकर शासन मौन, प्रशासन मौन, आखिर पीड़ित जनता की सुनेगा कौन ? कोटडिया काका जिंदाबाद।
छत्तीसगढ़ के क्रांक्रीट के जंगलो की दास्तान बताती है कि अखिल भारतीय सेवाओं के कई अफसरों ने बीहड़ों से दूरिया बनाना शुरू कर दिया है, वे छोटी-लंबी छुट्टियां दर्ज कर चम्बल के दफ्तरों से गायब हो रहे है। इसमें ऐसे अफसर भी शामिल है, जो अपनी सिर्फ ईमानदारी को ही सर्विस रिकॉर्ड में दर्ज कर भारत सरकार को गुमराह कर रहे है, जबकि उनकी भी कार्यप्रणाली मैदानी इलाकों से लेकर मंत्रालय तक पदस्थी के दौर में किसी नामी-गिरामी डकैतों की तुलना में कम नहीं आंकी जा सकती। ऐसे लोकसेवकों की भरमार छत्तीसगढ़ में चम्बल की घाटी की याद दिला रही है।
चम्बल के इलाके का कभी चप्पा-चप्पा छानने वाले पत्रकार तस्दीक कर रहे है कि छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के अलावा दुर्ग, बिलासपुर, कोरबा, रायगढ़ जैसे बड़े जिलों में लोकतंत्र के पहरेदारों ने ही प्रजातंत्र का दस्युराज स्थापित कर दिया है। यहां कहीं वर्दीधारी किसी परिहार के पढ़े लिखे डकैतों का गिरोह प्रदेश की खनिज संपदा पर हाथ साफ कर रहा है, तो कभी सरकारी तिजोरी पर ही हाथ साफ करने में सिर्फ बघेलखंड को सत्ता की चाबी सौप दी गई है।
प्रभावशील आरोपी और संदेही ED की गिरफ्त से बचने के लिए क़ानूनी दांव-पेंचो का इस्तेमाल कर रहे है। गब्बर सिंह की मॉडस ऑपरेंटी साफ हो चुकी है, रिटायर IAS अधिकारियों के कंधो पर कायदे-कानूनों का भार रख कर वो रोजाना नईं-नई वारदातों को अंजाम दे रहा है।
दिलचस्प बात यह कि अखिल भारतीय सेवाओं के ऐसे परम्परागत डकैतों को भी आईबी लेकर मंत्रालय तक के सरकारी दस्तावेजों में धड़ाधड़ क्लीन चिट दी जा रही है, ताकि भारत सरकार के सिस्टम में भी नए डकैतों की भर्ती और आवाजाही की प्रक्रिया सहज और सुलभ-आसान हो सके। सूत्र बताते है कि मोटी फीस लेकर कई डकैतों को हरी-झंडी दिखाने की योजना लाखों में है, उनकी गोपनीय मलीन चरित्रावली को गंगा जल से धोकर पवित्र किया जा रहा है।
भारत सरकार और केंद्रीय गृह मंत्रालय को समय रहते ठोस कदम उठाने होंगे, छत्तीसगढ़ में दिनों-दिन कमजोर हो रही प्रजातंत्र की राह आदर्श आचार-संहिता लागू होने से पहले कानून की राह में लानी होगी। राज्य की बागडोर गब्बर सिंह के हाथो में यथावत कायम न रहने पाए, वरना इस प्रदेश की आम जनता का जान माल मुहाल हो जायेगा।
कई भुक्त-भोगी अंदेशा जाहिर कर रहे है कि अब लोकतंत्र ही खतरे में पड़ गया है। बताते है कि कानून से ज्यादा लम्बे हाथ उस गब्बर सिंह के है, जिसे सत्ता का नशा संभाले नहीं संभल रहा है। नए दौर के गब्बर सिंह का धंधा सदियों पुराना है, भले ही उसके कंधो पर अब परम्परागत हथियार “दो-नाली बंदूक” लटकी हुई नजर न आती हो। लेकिन संविधान ने उन्हें अपनी संवैधानिक शक्तियों से लाद दिया है।
कानून के जानकार बताते है कि जनता ने अपना प्रतिनिधि स्वयं चुन कर शायद लोक कल्याण के कार्यो से खुद ब खुद बैर मोल ले लिया है, उनके गले में आन पड़ी ये मुसीबत अब टाले नहीं टल रही है, मोटी फ़ीस लेकर तंत्र मंत्र करने वाले भी दावा करने लगे है कि अनहोनी को होनी में बदलने वाली काली शक्तियां भी लोक तंत्र के डकैतों की रक्षा में जुट गई है। ये शक्तियां कानून को भी चुनौती देने में सक्षम है।
मध्यप्रदेश के सतना, पीताम्बरा, असम के कामाख्या और बस्तर की माँ दंतेश्वरी पीठ से जुड़े कई तांत्रिको ने न्यूज़ टुडे छत्तीसगढ़ से चर्चा करते हुए दावा किया कि जहां कानून का राज ख़त्म होता है, वहीं से हमारा राज शुरू होता है। वैसे तो अघोर तंत्र में किसी के जान-माल के नुकसान की सख्त मनाही है, लेकिन साधना में लीन नए “प्रैक्टिशनर” इससे परहेज नहीं करते वे तो याचक से ही मोटी फीस लेकर अपनी कार्य सिद्धी में जुटे है, उन्हें तात्कालिक फल दिखाई देता है, उस फल का परिणाम तो असल साधक ही देख सकता है।
तांत्रिक क्रियाओ में विभिन्न प्रकार के फलो के परिणामो पर चिंता जाहिर करते हुए एक वर्ग तस्दीक कर रहा है कि केके का जादू ख़त्म हो चूका है, उसकी शक्तियां मलीन हो कर वापिस अपने मुकाम पहुँच गई है, जबकि गब्बर सिंह के यज्ञोपावान में जुटे तांत्रिक दावा कर रहे है कि निशाना सध गया है, तभी तो दिल्ली दरबार में गब्बर सिंह का मामला अचानक छिटक-भटक गया है, अगली तिथि तक टाली गई यह बैठक अब किस वक्त मूर्त रूप लेगी, यह भी सोच-विचार आलाकमान के मस्तिष्क से विस्मृत कर दिया गया है।
छत्तीसगढ़ में क्रांक्रीट के जंगलो के बीच निवासरत एक बड़ी आबादी तस्दीक कर रही है कि राज्य में “कानून का राज” ख़त्म हुए पौने पांच साल बीत चुके है। इन वर्षो में सरकार संरक्षित जुल्मो-सितम से राहत की उम्मीद बेमानी साबित हुई है, अब तो उनकी जान भी जोखिम में है। भगवान भरोसे जीवन-यापन कर रही पीड़ित जनता अपने जान माल के बचाव की गुहार लगा रही है, उनका कोई खैरख्वाह नहीं है, अब तो सिर्फ कांग्रेस आलाकमान से ही उम्मीद की किरण की उम्मीद की जा रही है।
मध्यप्रदेश,राजस्थान और उत्तरप्रदेश की सीमाओं से सटी चम्बल की घाटी में वर्षो पहले जिस तर्ज पर विख्यात डकैत माधव सिंह, मोहर सिंह, पान सिंह, मान सिंह,निर्भय सिंह गुर्जर, ददुआ, सुल्ताना रानी, सीमा परिहार, फूलनदेवी और गब्बर सिंह का “आतंक का राज” था, उसी तर्ज पर छत्तीसगढ़ में सफ़ेदपोश, कुर्ता-पायजामाधारी, कंठ-लंगोट लगाए, कभी टाई पहने तो कभी वर्दीधारी लोकतंत्र के नए डकैत आम जनता, पत्रकारों, कारोबारियों, ठेकेदारों और उद्योगपतियों पर कहर बन कर टूट रहे है। उनके रोजाना नियमित समय पर चल रहे उपद्रव से शासन-प्रशासन की पटरी में दौड़ रही कानून की गाड़ी अपने पथ से लगातार उतरकर धरातल की ओर बढ़ रही है।
उधर राजनैतिक गलियारों से भी चौकाने वाली खबरे सामने आ रही है। दिल्ली कांग्रेस मुख्यालय में सरगर्मिया जोरो पर है,लेकिन किसी राज्य के बेलगाम मुख्यमंत्री को कुर्सी से उतारने के लिए नहीं बल्कि कांग्रेस का हाथ मजबूत करने के लिए जारी नई मुहिम से जुडी है, पार्टी ने देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के खिलाफ नया अभियान छेड़ा है, इस अभियान में कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्रियों का “हाथ” काफी मायने रखता है, आलाकमान इस तथ्य को भली-भांति जानता है। उसे अब छत्तीसगढ़ की नहीं बल्कि उन बड़े राज्यों की चिंता है, जहां से सत्ता की नई बागडोर तय की सके, यह प्रदेश तो लूटपाट के लिए ही है, ऐसे झूठे आरोप लगाकर, विपक्ष राज्य की ईमानदार सरकार को बेईमान साबित करने में जुटा है।
कांग्रेस मुख्यालय में चहल-कदमी कर रहे छत्तीसगढ़ के विभिन्न जिलों से पहुंचे कार्यकर्ता मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की तारीफों के पुल बांध रहे है, उनका दावा है कि गढ़बो नवा छत्तीसगढ़ की गूंज अब कर्नाटक में भी सुनाई देने लगी है,मुख्यमंत्री बघेल के परोपकारी कार्यो से कर्नाटक की नई प्रशासनिक व्यवस्था भी बड़ी प्रभावित है, इसलिए जनहित में छत्तीसगढ़ के कोल खनन परिवहन घोटाले की “तह” तक जाने वाले बेंगलुरु में दर्ज मामले को रफा-दफा करने के प्रयास जोर-शोर से शुरू कर दिए गए है। इस कड़ी में कोयला दलाल सूर्यकान्त तिवारी के खिलाफ दर्ज कुकर्मो को कमजोर करने का आंकलन शुरू कर दिया गया है।
कांग्रेस के गलियारों से मिल रही खबरों पर यकीन करें तो कांग्रेस मुख्यालय में शुक्रवार और शनिवार को छुट्टी कर दी गई है, रविवार को वैसे भी अंतरराष्ट्रीय छुट्टी दिवस ” Sunday” है। वैसे भी आज करे सो काल कर, काल करे सो परसो, जल्दी-जल्दी क्यों करता है ? अभी तो जीना है बरसो।। यह ध्येय वाक्य तो पार्टी आलाकमान की पुरानी रीति-नीति है, अब यह परंपरा निभाने की जवाबदारी माननीय खड़गे जी पर लाद दी गई है। उसके निर्वहन में “HOLIDAY ” भले ही कुछ लोगों के लिए HOLI DAY बन गया हो लेकिन एक न एक दिन “खड़ग” चलेगी जरूर।
खबरों के मुताबिक राजस्थान व मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनावों की तैयारियों को लेकर शुक्रवार व शनिवार को होने वाली कांग्रेस की बैठक स्थगित कर दी गई है, नई तारीखें जल्द ही तय होगी, यही बताया जा रहा है। कर्नाटक जीत के बाद उत्साहित कांग्रेस अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों की तैयारियों में जुट गई है। इसके तहत छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश, तेलंगाना व मिजोरम को लेकर दो दिनों तक आयोजित होने वाली बैठकें रद्द कर दी है, स्थगित हो गई है। सूत्रों ने बताया कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के 9 साल पूरे होने के महत्वपूर्ण तथ्य से पूरी पार्टी बेखबर थी, ज्यादातर नेता-कामगार बेफिक्री से “सो” रहे थे। कांग्रेस मुख्यालय में कर्नाटक चुनाव में जीत का डंका बज रहा था, वहीं 3 किलोमीटर दूर बीजेपी के तमाम छोटे- बड़े “किलो” में साज-सज्जा और सजावट चल रही थी।
बताते है कि कांग्रेस मुख्यालय में जश्न के जोश में खड़गे का दफ्तर भी ऐसा डूबा की अपना होशो-हवास भी खो बैठा। नींद के आगोश में उन महत्वपूर्ण तिथि पर आनन-फानन में नया एजेंडा लाद दिया गया, जो केंद्र की पीएम मोदी की अगुवाई वाली NDA सरकार को घेरने के लिए काफी पहले तय किया जाना चाहिए था ? पार्टी के कई महत्वपूर्ण नेता नाराजगी जाहिर कर रहे है कि खड़गे का कार्यालय भी परंपरानुसार काम कर रहा है, मस्त रहो मस्ती में आग लगे बस्ती में। कर्नाटक की मस्ती अब उस वक्त भारी पड़ी जब नई संसद भवन के लोकार्पण और महत्वपूर्ण मुद्दों पर बीजेपी की रणनीति अपना मुकाम पार कर गई।
देश की नई-पुरानी इमारते अब गौरान्वित हो रही है, ऐसे क्षणों में पूरा विपक्ष सत्ताधारी दल के आगे बौना साबित हो गया है। ऐसे ऐतिहासिक दौर में देश की सबसे पुरानी और जनतंत्र का हवाला देने वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की भूमिका सुर्खियों में है, देश की मुख्यधारा से जुड़े महत्वपूर्ण कार्यक्रमों में उसकी राजनैतिक सूझ-बुझ जनता के पैमाने पर आंकी जा रही है।
देश के गौरवशाली पलो के बीच कांग्रेस को उसकी राजनीति ने अलग-थलग करना शुरू कर दिया है, मौजूदा राजनैतिक उठा-पटक ने उसकी भी रणनीति वही है, जो विपरीत राजनीतिक धारा के अन्य पीएम मोदी विरोधी नेताओं और उनके दलों की है। कांग्रेस के G-23 समूह के कई नेता जो आशंका जाहिर कर रहे थे, वही आज कांग्रेसी गलियारों में फलीभूत होती दिखाई दे रही है, आनन-फानन में पार्टी को अपने पूर्व निर्धारित महत्वपूर्ण कार्यक्रमों को अचानक रद्द करना पड़ा है, ऎसी नौबत क्यों आन पड़ी है ? आखिर क्यों इसे समय पूर्व सोचा-समझा नहीं गया था ? खड़गे जी, आप क्या कर रहे थे ? पार्टी के मौजूदा फैसले से G-23 के कई नेता इत्तेफाक नहीं रखते है।
G-23 के कई नेताओं का अहसाह मजबूत हो रहा है कि पार्टी अभी भी संकट के दौर से गुजर रही है, पूरा G-23 सदमें, में है, इस वक्त मौन साधना करना ही वो मुनासिब समझ रहा है। वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल के अलावा और कोई नेता अपनी राय तक बेबाक़ी तो दूर, सामान्य राय जाहिर तक करना कांग्रेस के हितों में बता रहा है।
खड़गे की अगुवाई वाली नई पौध को आखिरी क्षणों में पता पड़ा कि “जोन दिन ला , छत्तीसगढ़ का कांटा निकालना हवे ओन दिन खड़गे ल झना-झन बैठक आयोजित करन मामला निपटाना हवे, अब तो चुनाव सिर पर हवे, अब तो जेन होही ओला देखा जाहि।।