नई दिल्ली / ओ री चिरैया नन्ही सी चिडिय़ा अंगना में फिर आजा रे…अंधियारा है घना और लहू से सना किरणों के तिनके अम्बर से चुन्न के अंगना में फिर आजा रे। हमने तुझपे हज़ारों सितम हैं किये हमने तुझपे जहां भर के ज़ुल्म किये, हमने सोचा नहीं तू जो उड़ जायेगी ये ज़मीन तेरे बिन सूनी रह जायेगी। किसके दम पे सजेगा अंगना मेरा ओ री चिरैया, मेरी चिरैया अंगना में फिर आजा रे। स्वानंद किरकिरे का लिखा यह गीत गौरैया दिवस पर सबसे ज्यादा याद आता है। आप भी याद कीजिए, अंतिम बार आपने गौरैया को कब देखा था। कहां देखा था। वो गौरैया जिसके बिना हमारे बचपन की यादें अधूरी हैं, आज कहीं खो गईं हैं।
कभी घर-आंगन में चहकने वाली गौरैया बेशक मौजूदा वक्त में कम नजर आती हो, लेकिन दिल्ली में अभी इसने प्रजनन क्षमता नहीं खोई है। राजधानी की राज्य पक्षी को अगर रहने के लिए प्राकृतिक घरौंदा मिल जाए तो वह दोबारा दिल्ली की शान बन सकती है। गांवों के नजदीक विकसित यमुना बायो डायवर्सिटी पार्क के इर्द-गिर्द गौरैया की चहचहाहट से यह साबित भी होता है। गांवों में पर्याप्त खाना मिलने और पार्क की रिहायश में उसने रहना स्वीकार कर लिया है। पिछले कुछ समय से इस पार्क की परिधि पर 40 से 50 गौरैया झुंड के रूप में नजर आ जाती हैं। पक्षी विशेषज्ञों का मानना है कि यमुना बायो डायवर्सिटी समेत दूसरे पार्कों में गौरैया की वापसी हो रही है, लेकिन यह इस बात का भी सुबूत है कि पर्यावास खत्म होने से इस चिड़िया ने दूसरे स्थानों पर दिखाई देना बंद कर दिया है।
विशेषज्ञों का कहना है कि जीवाश्मीय प्रमाण मिले हैं कि अस्तित्व में आने के बाद से ही गौरैया की मनुष्यों पर निर्भरता बनी रही। इंसानी बस्तियों के नजदीक इनका रहना हुआ है। पेड़-पौधों ने उन्हें रिहायश दी थी। घरों से निकले तरह-तरह के कच्चे व पके अनाज और कीट-पतंगे इनके व इनके चूजों का पेट भरने का जरिया थे। दिल्ली के बीते 20 साल के विकास ने पूरे सिस्टम में उलटफेर कर दिया है, जो पक्षियों की संख्या में गिरावट के तौर पर देखा गया है। बायो डायवर्सिटी पार्क के इंचार्ज डॉ. फैय्याज खुदसर बताते हैं कि बावजूद इन दिक्कतों के अभी उम्मीद खत्म नहीं हुई है। इसमें सबसे अहम यह है कि दिल्ली में गौरैया की प्रजनन क्षमता अभी खत्म नहीं हुई है। प्राकृतिक पर्यावास खत्म होने से यह यहां से खत्म होती जा रही हैं। अगर गौरैया के रहने व खाने का अनुकूल माहौल मिले तो दोबारा दिल्ली में उसकी चहचहाहट सुनी जा सकती है।
तीन गांवों और पार्क की सीमा पर बड़ी संख्या में रिहायश
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यमुना बायो डायवर्सिटी पार्क के नजदीक तीन गांव हैं, जगतपुर, संगम विहार व बाबा कालोनी। बड़ी संख्या में गौरैया ने गांव व पार्क की सीमा पर आशियाना बना रखा है। गांव में उन्हें खाना मिल जाता है और पार्क की परिधि पर रहने लायक जगह। इससे उनकी आबादी तेजी से बढ़ी है। इस वक्त वहां 40 से 50 चिड़िया झुंड में भी देखी जाती हैं। दिलचस्प यह है कि गौरैया पार्क के बीच में नहीं दिखती। विशेषज्ञ मानते हैं कि घने जंगल को गौरैया आसानी से स्वीकार नहीं करती है। तिलपत और अरावली के पार्क की भी यही कहानी है।
विशेषज्ञों का कहना है कि गौरैया इंसानों की दोस्त भी है। घरों के आसपास रहने की वजह से यह उन नुकसानदेह कीट-पतंगों को अपने बच्चों के भोजन के तौर पर इस्तेमाल करती थी, जिनका इस वक्त प्रकोप इंसानों पर भारी पड़ता है। कीड़े खाने की आदत से इसे किसान मित्र पक्षी भी कहा जाता है। अनाज के दाने, जमीन में बिखरे दाने भी यह खाती है। मजेदार बात यह कि खेतों में डाले गए बीजों को चुगकर यह खेती को नुकसान भी नहीं पहुंचाती। यह घरों से बाहर फेंके गए कूड़े-करकट में भी अपना आहार ढूंढती है।दिल्ली सरकार ने गौरैया के संरक्षण के लिए इसे राज्य पक्षी का दर्जा दे रखा है। सरकार की कोशिश है कि गौरैया को फिर से दिल्ली में वापस लाया जाए। वैज्ञानिकों का मानना है कि गौरैया की 40 से ज्यादा प्रजातियां हैं, लेकिन शहरी जीवन में आए बदलावों से इनकी संख्या में 80 फीसदी तक कम हुई है।
गौरैया अमूमन झुंड में रहती है। भोजन की तलाश में यह 2 से 5 मील तक चली जाती है। यह घोंसला बनाने के लिए मानव निर्मित एकांत स्थानों या दरारों, पुराने मकानों का बरामदा, बगीचों की तलाश करती है। अक्सर यह अपना घोंसला मानव आबादी के निकट ही बनाती हैं। इनके अंडे अलग-अलग आकार के होते हैं। अंडे को मादा गौरैया सेती है। गौरैया की अंडा सेने की अवधि 10-12 दिनों की होती है, जो सारी चिड़ियों की अंडे सेने की अवधि में सबसे कम है। आदिवासी समाज में भी गौरैया का महत्वपूर्ण स्थान है जो सोहराई और कोहबर कला में भी दिखती है। लेकिन अब इसमें भी वो कमी दिख रही है।
फसलों पर भी पड़ा असर
गौरैया फूड चेन की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। हाल के दिनों में इसके गायब होने से फसलों के उत्पादन पर भी असर पड़ा है। डा सत्यप्रकाश बताते हैं कि इस ङ्क्षचताजनक स्थिति को देखते हुए साल 2010 में 20 मार्च को पहली बार गौरैया दिवस मनाया गया।
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क्यों कम हो रही है गौरैया
डा सत्यप्रकाश बताते हैं कि पूरे झारखंड में किए अपने रिसर्च सर्वे में उन्होंने पाया कि गौरैया एकदम से गायब नहीं हो रही। बल्कि कुछ-कुछ स्थानों को छोड़कर दूसरे स्थानों पर बस रही हंै। इसका सबसे बड़ा कारण शहरीकरण है। हालांकि शहरों में रेडिएशन का गौरैया पर प्रभाव के बारे में कोई पुख्ता रिपोर्ट नहीं है इसलिए झारखंड के पक्षी वैज्ञानिक इसपर कुछ बोल नहीं रहे।
खेतों में कीटनाशक का हो रहा इस्तेमाल
एक और सर्वे में यह बात सामने आयी कि खेतों में केमिकल कीटनाशक का इस्तेमाल और रासायनिक खाद के अंधाधुंध इस्तेमाल से भी इनकी संख्या प्रभावित हुई है। गौरैया अपने बच्चों को कीड़े खिलाती है। मगर कीटनाशक के कारण या तो कीट मर जाते हैं या जहरीले कीट के खाने से गौरैया के बच्चे।
गौरैया का हो रहा शिकार
साथ ही बगेरी के शिकार के नाम पर भी गौरैया का बड़े स्तर पर शिकार किया गया है। इसका कारण दोनों के लगभग एक तरह का दिखना है।
जिम्मेदार हम हैैं इसका प्रमाण है…
पक्षी विज्ञानी डा सत्यप्रकाश बताते हैं कि कोरोना संक्रमण की रोकथाम के लिए लगाए गए लाकडाउन का पक्षियों पर बड़ा असर पड़ा। पर्यावरण साफ होने और प्रदूषण का स्तर कम होने से पूर्ण लाकडाउन के समय शहरी हिस्सों में अचानक से गौरैया की संख्या में 20 प्रतिशत तक की वृद्धि देखने को मिली। हालांकि अगस्त के बाद स्थिति पहले की तरह हो गई। इससे साफ पता चलता है कि प्रदूषण कम होगा, मानवीय गतिविधि कम होगी तो गौरैया फिर से हमारे आंगन में फूदकने लगेगी।
गौरैया के संरक्षण के लिए किया जा रहा है काम
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डा सत्यप्रकाश बताते हैं कि गौरैया के संरक्षण के लिए वो और उनकी टीम के सदस्य बड़े स्तर पर काम कर रहे हैं। इसमें पहले स्तर पर गौरैया के आवास का संरक्षण किया जा रहा है। वहीं दूसरे स्तर पर जिला प्रशासन की मदद से बगेरी के शिकार पर रोक की पहल की जा रही है। अगर बगेरी का शिकार रुकेगा तो गौरैया का अप्रत्यक्ष रूप से हो रहा शिकार भी रुकेगा। वहीं गांव में किसानों को रासायनिक कीटनाशक के स्थान पर जैविक कीटनाशक और वर्मी कंपोस्ट के इस्तेमाल के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है। साथ ही, शहरों और गांवों में सम्मेलन और गोष्ठी करके लोगों को जागृत भी किया जा रहा है।