
भारत में बढ़ती बादल फटने की घटनाएं
भारत में बादल फटने की घटनाएं तेजी से बढ़ रही हैं, जो पर्यावरण और मानव जीवन दोनों के लिए गंभीर खतरा बन गई हैं। पिछले नौ वर्षों में घटित आपदाओं ने स्थानीय लोगों की जिंदगी को झकझोर दिया है। जलवायु परिवर्तन, जंगलों की अनियंत्रित कटाई और अवैज्ञानिक निर्माण कार्य इस संकट को और बढ़ा रहे हैं। खासकर हिमालयी क्षेत्रों में इसका असर सबसे अधिक देखा जा रहा है।
बादल फटने की वैज्ञानिक व्याख्या
भारतीय मौसम विज्ञान विभाग (IMD) के अनुसार, बादल फटना तब होता है जब 20-30 वर्ग किलोमीटर के छोटे क्षेत्र में केवल एक घंटे में 100 मिलीमीटर से अधिक बारिश होती है। ये अचानक भारी वर्षा भूस्खलन, बाढ़ और अन्य आपदाओं को जन्म देती है।
मुख्य कारण
- ओरोग्राफिक प्रभाव: हिमालय की चोटियां हवाओं को ऊपर उठाती हैं, जिससे भारी बारिश होती है।
- जलवायु परिवर्तन: ग्लोबल वार्मिंग के कारण वायुमंडल में नमी बढ़ रही है, जिससे बादल फटने की संभावना बढ़ती है।
- पर्यावरणीय विनाश: जंगलों की कटाई, अनियोजित शहरीकरण और अवैध खनन मिट्टी के कटाव और भूस्खलन को बढ़ाते हैं।
- मॉनसून और पश्चिमी विक्षोभ: बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से आने वाली नमी भारी बारिश को तेज करती है।
ऐतिहासिक और मानवीय प्रभाव
1908 में हैदराबाद में 15,000 लोग मारे गए थे। हाल के वर्षों में उत्तरकाशी और किश्तवाड़ में भी भारी क्षति हुई है। 2025 में किश्तवाड़ के चशोटी में 45 लोगों की जान गई, जबकि उत्तरकाशी के धराली गांव में चार लोग मरे और 50 से अधिक लापता हुए।
सामाजिक और धार्मिक प्रभाव
बादल फटने ने अमरनाथ और मचैल माता जैसी धार्मिक यात्राओं को बाधित किया है। सड़कें टूटने से राहत कार्य प्रभावित होते हैं, बिजली और संचार सेवाएं ठप हो जाती हैं, और पर्यटन व कृषि क्षेत्र को भारी नुकसान होता है।
समाधान और तैयारी
सटीक भविष्यवाणी मुश्किल है, लेकिन उन्नत मौसम निगरानी, वन संरक्षण और नियोजित शहरीकरण से जोखिम कम किया जा सकता है। इसके अलावा, जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए स्थानीय और वैश्विक कदम जरूरी हैं।