एक म्यान में दो तलवार, छत्तीसगढ़ पुलिस मुख्यालय फिर सुर्ख़ियों में…
छत्तीसगढ़ पुलिस मुख्यालय में राजनीति कोई नई बात नहीं है। यहाँ खाकी वर्दी में अफसरनुमा कई ऐसे धुरंदर नेता तैनात है, जिनके दांवपेचों के आगे पेशेवर राजनेता भी पानी भरते नजर आते है। पुलिस महकमे में चौंकाने वाले फरमानों से पूर्ववर्ती भूपे सरकार की यादे तरोताजा हो रही है। बताया जाता है कि पूर्व मुख्यमंत्री की मुँह-बोली ASP स्तर की एक बहन को ‘आईजी’ स्तर की कुर्सी एक बार फिर सौंप दी गई है। कायदों कानूनों को दरकिनार कर ‘बहन जी’ को रेलवे पुलिस की जवाबदारी सौंप दी गई है। जबकि पूर्ववर्ती मुख्यमंत्री के गिरोह में शामिल सट्टेबाज आईपीएस अधिकारियों को भी मनचाहे स्थलों पर तैनाती प्रदान कर सुशासन का झंडा बुलंद किया जा रहा है। आश्चर्यजनक, लेकिन सत्य साबित हो रहे ट्रांसफ़रों से प्रदेश की पुलिसिंग का दम निकलना तय माना जा रहा है। यह भी बताया जा रहा है कि विष्णु दरबार के प्रभावशील जूनियर अधिकारियों की मंशा के विपरीत सरकारी मशीनरी में एक कलपुर्जा तक नहीं हिल पा रहा है। कई विधायक, मंत्री और सत्ताधारी दल के नेता भी अपनों की ट्रांसफर-पोस्टिंग को लेकर दो-चार हो रहे है। पुलिस मुख्यालय में तैनात सीनियर अधिकारियों को ठिकाने लगाने का उपक्रम भूपे राज की तर्ज पर मौजूदा दौर में भी तेजी से प्रगति कर रहा है। सत्ता के स्वाद का लुफ्त उठाने में मशगूल जूनियर अधिकारियों के पद और प्रभाव के दुरुपयोग के चलते कई सीनियर अधिकारियों की मान-प्रतिष्ठा तक दांव पर लग चुकी है।

उनकी तक़दीर का फैसला जूनियर अधिकारियों के हाथों में होने से कायदे-कानूनों की बखिया भी अलग उधड़ रही है। नौकरशाही के रुख को लेकर हैरान परेशान आरएसएस और बीजेपी संगठन के कई नेताओं को अभी से आभास होने लगा है कि आगामी वर्ष 2028 में बीजेपी की जीत पार्टी के आम कार्यकर्ता नहीं बल्कि दरबार के गिने-चुने अधिकारी ही तय करेंगे। किस सीनियर अधिकारी को कौन-सी कुर्सी से नवाज़ा जाना है, किसे ठिकाने लगाया जाना है ? ट्रांसफर-पोस्टिंग और पदोन्नति में पेंच आखिर कहाँ फंसाना है, इसका फार्मूला भी जूनियर आईपीएस अधिकारियों को बखूबी पता है। जूनियर अधिकारियों की मंशा कों लेकर माथापच्ची का दौर जारी है। पुलिस महकमे के कई चर्चित फरमानों को लेकर सिर्फ पुलिस मुख्यालय में ही नहीं बल्कि अब तो राजनैतिक गलियारों में भी गहमा-गहमी शुरू हो गई है। नेता नगरी से लेकर कई वरिष्ठ अफसरों के दफ्तरों तक में जूनियर के दांवपेचों से खलबली है। लोगों की जुबान पर गौर फरमाए तो प्रदेश में पुलिसिंग का बंटाधार हो रहा है, उनकी माने तो दरबार में डटे एक मोर्चे की मनमर्जी से पूर्ववर्ती भूपे सरकार के दौर की यादें तरोताजा हो गई है। ताजा घटनाक्रम में आईपीएस अधिकारियों की वरिष्ठता में खोट का मामला सरगर्म है। DOPT की गाइडलाइन और MHA के तय नियमों के विपरीत वरिष्ठता क्रम तय होने से PHQ में गतिरोध कायम हो गया है।

कई वरिष्ठ अफसर तो अपने अधिकार को लेकर अदालत का दरवाजा खटखटाने की तैयारी में है। कहते है कि कुछ अफसरों ने तो, मामला मुख्यमंत्री के संज्ञान में लाने के लिए अपॉइंटमेंट भी माँगा था, लेकिन जूनियर अफसरों ने उनके अरमानों पर पानी फेर दिया। यह भी बताया जा रहा है कि पीड़ित अफसरों को इंसाफ तो दूर अब मुख्यमंत्री से मिलने तक के लाले पड़ गए है। नियमानुसार वरिष्ठता पाने के लिए उन्हें एड़ी-चोटी एक करनी पड़ रही है। वर्त्तमान वरिष्ठता सूची में तय नियमों का पालन सुनिश्चित ना करने के पीछे जूनियर लॉबी की राजनैतिक सक्रियता के चर्चे आम हो चले है। इस गोलमाल के चलते DG और DGP जैसे महत्वपूर्ण और वरिष्ठ पदों के लिए नई प्रतिस्पर्धा शुरू हो गई है। UPSC से सीधे चयनित कई आईपीएस अधिकारियों को नौकरी के अंतिम पड़ाव में वरिष्ठता जैसे सहज प्रकरणों के लिए भी जूझना पड़ रहा है।

DGP और CS जैसे पदों पर आसीन अधिकारी आखिर क्यों क़ानूनी त्रुटि बरत कर राजनीति के शिकार हो रहे है। इस मुद्दे पर PHQ की राजनीति कदमताल कर रही है। अब तो प्रदेश में DGP के ओहदे पर आसीन होने का सपना देखना भी वरिष्ठ अफसरों के लिए दिन में तारे देखने जैसा नजर आने लगा है। नीट एंड क्लीन ‘CR’, योग्यता-अहर्ता (मेरिट एंड सीनियर्टी) के साथ-साथ ऊंची राजनैतिक पहुँच का होना भी अनिवार्य हो गया है, अन्यथा करियर चौपट होने के साथ ठिकाने लगना भी तय माना जाने लगा है। बताते है कि कई योग्य अफसरों की कार्यक्षमता को नजरअंदाज कर महकमे के मार्गदर्शक मंडल में कुर्सी सौंपने से प्रतिभा का पलायन तय हो गया है। इस नए चलन से प्रदेश की पुलिसिंग का जहां बंटाधार हो रहा है, वहीं कई योग्य और कुशल नेतृत्व वाले गुणात्मक अफसरों की सेवाओं से प्रदेश की आम जनता वंचित हो रही है। राजनैतिक तिकड़मों में लिप्त जूनियर अधिकारियों की कार्यशैली PHQ पर भारी पड़ रही है।

विष्णुदेव साय दरबार में सरकार के कर्णधारों का टारगेट हिट या फ़ाउल ? CS और EX DGP सूचना आयुक्त की रेस से बाहर ? नियुक्ति रोमांचक…
छत्तीसगढ़ में सूचना आयुक्त के पद को लेकर प्रशासनिक हलकों में घमासान है। कई प्रभावशील अधिकारी इस पद के लिए कतार लगाए खड़े है। उम्मीदवारों की सूची में मौजूदा CS और EX DGP के नाम का डंका बज रहा है, इसके शोर से हज़ारों RTI एक्टिविस्ट की नींद हराम बताई जाती है। दरअसल, ज्यादातर एक्टिविस्ट ने पूर्ववर्ती भूपे सरकार के कार्यकाल में अंजाम दिए गए भ्रष्टाचार और घोटालों की जानकारी की मांग को लेकर सूचना आयुक्त कार्यालय में RTI दाखिल की है। सैकड़ों प्रकरण तो अपील में दर्ज बताये जा रहे है। ऐसे समय सूचना आयुक्त जैसे महत्वपूर्ण पद पर मौजूदा CS और पूर्व DGP अशोक जुनेजा की उम्मीदवारी सवालों के घेरे में बताई जा रही है।तस्दीक की जा रही है कि जिन प्रकरणों पर EOW, IT-ED और CBI जांच में जुटी है, ऐसे कई प्रकरणों में तत्कालीन DGP जुनेजा और मौजूदा CS अमिताभ जैन भी पार्टी बन गए है।

उनके कार्यकाल में ही बड़े-बड़े घोटाले सामने आये है। विधिक जानकारों के मुताबिक अदालत में विचाराधीन विभिन्न प्रकरणों में कभी राज्य सरकार की ओर से पदेन तो कभी व्यक्तिगत रूप से हलफनामा दाखिल कर पूर्व DGP जुनेजा और मौजूदा CS अमिताभ जैन अदालत तक में पार्टी बन चुके है। ऐसे में दोनों ही अफसरों की निष्पक्षता और साफगोई विवादों के घेरे में बताई जा रही है। सूत्र तस्दीक करते है कि किसी भी संवैधानिक प्लेटफॉर्म पर दोनों ही अफसरों की नियुक्ति अदालत में चुनौती का बड़ा कारण साबित हो सकती है। सूचना आयुक्त के पद के लिए इन अफसरों की उम्मीदवारी ने क़ानूनी सवाल खड़ा कर दिया है, इसके साथ ही नियुक्ति लटकने के आसार खड़े नजर आने लगे है। हालांकि अभी भी गेंद, मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय के पाले में बताई जा रही है, टीम साय टारगेट हिट करेगी या फिर होगा फ़ाउल ? शॉट से छत्तीसगढ़ शासन की बढ़ेगी मुश्किलें ? या फिर सहजता के साथ ताजपोशी का नजारा दिखाई देगा ? यह तो वक़्त ही बताएगा।

कौन बनेगा CS ? छत्तीसगढ़ में नए प्रशासनिक मुखिया का इंतजार, तलवार की नोक पर चयन…
छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री विष्णुदेव साय का एक फैसला तलवार की नोक पर बताया जा रहा है। इस फैसले के दूरगामी परिणामों के मद्देनजर माथापच्ची का दौर जारी है। कौन बनेगा प्रदेश का अगला प्रशासनिक मुखिया ? जनता की निगाहे इस ओर लगी हुई है। दलील दी जा रही है कि प्रशासनिक मुखिया का चयन कोई हंसी खेल नहीं है ? किसी ऐसे-वैसे अफसर के हाथ कुर्सी लग गई तो सरकार का डूबना भी तय माना जाने लगा है। प्रशासनिक मामलों के जानकारों के मुताबिक CS और DGP के चयन की प्रक्रिया पुराने ढर्रे के बजाय अब नए दौर में तलवार की नोक पर चलने जैसी है। ऐसे प्रशासनिक नेतृत्वशील पदों पर चयन में बरती गई जरा सी चूक के दूरगामी परिणाम सामने आने के दर्जनों उदहारण सामने गिनाये जा रहे है।

जानकारों के मुताबिक दोनों ही पदों पर जल्दबाजी में लिया गया फैसला प्रदेश की नौकरशाही को जहाँ नकारात्मकता की ओर ले जाने में कारगर साबित हो रहा है, वही सत्ताधारी दल की छवि पर इसका विपरीत प्रभाव भी देखा गया है। पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार के कार्यकाल में उत्पन्न नज़ारे को याद कर जानकार इसकी तस्दीक भी कर रहे है। प्रदेश की राजनैतिक सरगर्मियों के बीच प्रशासनिक मुखिया के चयन का मामला काफी संदेवनशील बताया जा रहा है। चर्चा है कि प्रदेश में लकीर के फ़क़ीर या फिर सुस्त कार्यशैली का परिचय देने वाले अफसरों कों CS और DGP जैसे महत्वपूर्ण पदों की कुर्सी सौंपने से ना केवल प्रदेश में कानून व्यवस्था के मुद्दे हिलोरे मार रहे है, बल्कि अदालत के गलियारों में भी चर्चा का विषय बने हुए है।

पूर्ववर्ती सरकार की हां में हां मिलाने वाले अफसरों के लिए मौजूदा सरकार में भी कुर्सियां रिजर्व रखने का मामला गरमाया हुआ है। ऐसे पदों पर अकुशल अफसर का चयन राज्य की जनता पर भी भारी पड़ सकता है। राजनीति के जानकारों का मानना है कि भूपे सरकार में जूनियर अधिकारियों की मनमर्जी वाले फैसलों पर CS की चुप्पी या सभी मुहर से ना केवल भ्रष्टाचार चरम पर पहुंचा था, बल्कि लेनदेन के ममाले आम होने से पूर्ववर्ती कांग्रेस सरकार देश-विदेश तक बदनाम हो गई थी। कायदे कानून और प्रशासनिक व्यवस्था चौपट होने के चलते प्रदेश का विकास भी बाधित हुआ था। नौकरशाही के रवैये को लेकर जनता की नज़रों में नकारत्मक प्रभाव भी नजर आया था।

लोक-कल्याणकारी कई महत्वपूर्ण योजनाएं अपने मार्ग से भटक गई थी।जनता को उसका समुचित लाभ नही मिल पाया था। ऐसी महती योजनाओं में भ्रष्टाचार और घोटालों के चलते भले ही आरोपी अधिकारी जेल की हवा खा रहे हो, लेकिन ‘सत्ता’ कांग्रेस के हाथों से देखते ही देखते खिसक भी गई थी। सरकारी मशीनरी को भ्रष्टाचार मुक्त और क़ानूनी रूप से सुचारु बनाये रखने के मामले में मौजूदा चीफ सेक्रेटरी और पूर्व डीजीपी जुनेजा अपने कार्यकाल में नाकाम साबित हुए थे। एक बार फिर प्रदेश में नए प्रशासनिक मुखिया के चयन की सरगर्मियां तेज है। इसके साथ ही पूर्णकालिक DGP का चयन भी प्रतियोगिता में शुमार बताया जा रहा है। कुपात्रों को राजनैतिक कृपा की सौगात दोबारा प्राप्त होगी या फिर साय सरकार इस कुप्रथा पर लगाएगी विराम ? यह देखना गौरतलब होगा।
वन मंत्री केदार कश्यप की नाक के नीचे तेंदू पत्ता घोटाला, बस्तर में गृहमंत्री विजय शर्मा की धमक और पूर्व विधायक मनीष कुंजाम के ठिकानों पर EOW की छापे की नई दास्तान..

छत्तीसगढ़ के बस्तर में सुरक्षाबलों ने नक्सलियों कों लगभग ठिकाने लगा दिया है। आदिवासी, नक्सलवाद के खात्मे से ज्यादा हैरान-परेशान तेंदूपत्ता घोटाले से बताये जा रहे है। उनका मानना है कि भले ही नक्सलवाद से मुक्ति मिल गई हो लेकिन सरकारी दफ्तरों में तैनात डकैतवादी तत्व अभी भी कुर्सी जमाये बैठे है। सुकमा में EOW ने करोड़ों के तेंदूपत्ता घोटाले में शामिल दर्जनों अधिकारियों, ठेकेदारों और कारोबारियों के घरों में छापेमारी की जद में पूर्व विधायक मनीष कुंजाम भी आ गए हैं।

उनकी दलील है कि तेंदूपत्ता घोटाले की शिकायत उन्होंने ही की थी। लेकिन अब उनके ठिकाने पर ही छापा पड़ गया है। छापे में विभिन्न ठिकानें से लाखों की नगदी और दस्तावेज भी EOW ने अपने कब्जे में लिया है। विवेचना जारी है, इस बीच बस्तर में राजनीति जोरो पर बताई जा रही है। बस्तर के चर्चित मंत्री केदार कश्यप को बस्तर के प्रभार से मुक्त कर दूसरे जिले का प्रभार सौंपे जाने का मामला जिले के राजनेताओं की जुबान पर हैं। इस प्रशासनिक मसले के राजनीतिक मायने निकाले जा रहे हैं।

राजनीति के जानकारों के मुताबिक बस्तर के गांव-कस्बों में अब वन मंत्री केदार कश्यप के बजाय गृहमंत्री विजय शर्मा की धमक सुनाई दे रही हैं। युवा मंत्री जी कभी मोटरसाइकिल तो कभी चौपहिया वाहन में सवार होकर जनता जनार्दन की सेवा में जुटे बताये जाते है। जबकि दूसरी ओर वन मंत्री केदार कश्यप खुद के लॉन्चिंग पैड से भी नदारत होते नजर आ रहे हैं। यह भी बताया जा रहा है कि मंत्री बनने के बाद साहब की व्यस्ता इतनी बढ़ चुकी है कि वे अपनी विधानसभा क्षेत्र से भी कोसों दूर हो गये हैं.

उनके कई समर्थकों के बीच पलायन की नौबत दिखाई दे रही हैं। राजनैतिक मंचों पर इन दिनों केदार कश्यप के नाम से ज्यादा गूंज गृहमंत्री विजय शर्मा और बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष किरण सिंहदेव की सुनाई दे रही। स्थानीय जनता के सामने बीजेपी के दो नए शक्तिपीठ स्थापित दिखाई दे रहे है। जबकि मंत्री केदार कश्यप के समर्थकों को उनकी कमी खल रही है। हालिया नजारा वक़्त का तकाजा है या फिर बस्तर के नए राजनैतिक समीकरणों की आधारशिला, कयासों का दौर शुरू हो गया है।