नई दिल्ली(वेब डेस्क): आमतौर पर जब कभी भी ज़ुबानी जंग तेज होती है, ‘ज्यादा तुर्रम खां मत बनो.’ ‘बड़ा तुर्रम खां बन रहा है.’ ‘खुद को तुर्रम खां समझ रहा है.’ ये डायलॉग अक्सर सुनने मिलते हैं. हो सकता है आपने भी ये तंज कसा हों या फिर सुना हो. जब कोई अपनी डींगे हांकता है, सामने वाले को बातों ही बातों में गिराने की कोशिश करता है तो उसे तुर्रम खां बोल दिया जाता है. लेकिन क्या आप जानते हैं कि जिसके नाम पर इतने डायलॉग बन गए असल में वो कौन था? हम आपको असली तुर्रम खां के बारे में बताते हैं. उनके नाम पर इतने मुहावरे,तंज और डायलॉग क्यों बने खबर में यह भी जानकारी दे रहे है.
जानकारी के मुताबिक़ तुर्रम खां का असली नाम तुर्रेबाज खान (Turrebaz Khan) था. तुर्रम खां कोई मामूली शख्स नहीं थे, बल्कि 1857 में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई के जाबाज नायक थे. मंगल पांडे ने बैरकपुर में जिस आजादी की लड़ाई की शुरुआत की थी, हैदराबाद में उसका नेतृत्व तुर्रम खां ने किया था. जाहिर है दोनों एक दुसरे से परिचित थे.
1857 के स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी मंगल पांडे ने बैरकपुर में फूंकी थी. यह चिंगारी जल्दी ही दानापुर, आरा , इलाहाबाद, मेरठ, दिल्ली , झांसी होते हुए पूरे भारत में आग की तरह फैल गई. इसी क्रम में हैदराबाद में अंग्रेजों के एक जमींदार चीदा खान ने सिपाहियों के साथ दिल्ली कूच करने से मना कर दिया था. इसी दौरान साजिश रच कर निजाम के मंत्री ने धोखे से चीदा खान को कैद कर अंग्रेजों को सौंप दिया था. अंग्रेजो ने उसे रेजीडेंसी हाउस से कैद कर लिया. उसी को छुड़ाने के लिए जांबाज तुर्रम खां अंग्रेजों पर आक्रमण की ठान ली. 17 जुलाई 1857 की रात की रात को तुर्रम खान ने 500 स्वंतंत्रता सेनानियों के साथ रेजीडेंसी हाउस पर हमला कर दिया.
तुर्रम खां ने रात को हमला इसलिए किया क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि रात के अचानक हमले से अंग्रेज हैरान रह जाएंगे और उन्हें फतेह हासिल होगी. लेकिन उनकी इस उम्मीद पर उस समय पानी फिर गया जब योजना के बारे में एक गद्दार ने अंग्रेजों को मुखबिरी कर दी. दरअसल निजाम के वजीर सालारजंग ने गद्दारी करते हुए अंग्रेजों को पहले ही सूचना दे दी थी. अंग्रेज पूरी तरह से तुर्रम खां के हमले के लिए तैयार थे. उनके तोप और हजारों सिपाही बंदूक भर कर तुर्रम खां और उसके साथियों का ही इंतजार कर रहे थे.
अंग्रेजों के पास बंदूकें और तोपें थीं, जबकि तुर्रम खां और उनके साथियों के पास केवल तलवारें थीं. इसके बावजूद तुर्रम खां ने हार नहीं मानी. तुर्रम खान और उसके साथी अंग्रेजों पर टूट पड़े. युद्ध में तुर्रम की तलवार अंग्रेजों की तोप और बंदूक पर भारी पड़ने लगी. लेकिन अंग्रेज संख्या बल और हथियारों में ज्यादा थे. लिहाज़ा वो तुर्रम खां पर भारी पड़ने लगे. तुर्रम के साथी पूरी रात अंग्रेजों का मुकाबला करते रहे. अंग्रेजों की भरपूर कोशिश के बाद भी वे तुर्रम खां को पकड़ नहीं पाए.
उस युद्ध के बाद अंग्रेजों ने तुर्रम खां के ऊपर 5000 रुपये का इनाम रखा था. उस दौर में इतनी बड़ी रकम बतौर इनाम देश विदेश में किसी के ऊपर नहीं रखी गई थी. कुछ दिनों बाद एक गद्दार तालुकदार मिर्जा कुर्बान अली बेग ने लालच में आकर तूपरण के जंगलों में धोखे से तुर्रम खान पर हमला बोल दिया. इस घटना में उनकी मौत हो गई.तुर्रम खां की बहदुरी के चलते लोग आज भी शहीद के तौर पर उन्हें याद करते हैं. इसी के चलते उनके नाम के मुहावरे और डायलॉग अक्सर लोगों की जुबान पर होते है.