दिल्ली / रायपुर / भोपाल – कोरोना संक्रमण में लोगों को समूचित सहायता देने के लिए कई राज्य सरकार अपने हाथ खड़े कर रही है | कोई केंद्र से 30 तो कोई 50 और 60 हज़ार करोड़ की मांग कर रहा है | तमाम राज्य सरकार आर्थिक रोना रो रही है | यही हाल केंद्र का है, वो भी आम जनता के बजाये चुनिंदा टैक्स पेयर पर टैक्स का भार लगातार बढ़ा रहा है | व्यापारियों और उद्योगपतियों पर रोज नए कर लगाए जा रहे है | लेकिन केंद्र और राज्य में बैठे नेता इन करों से मिलने वाली रकम का एक बड़ा हिस्सा स्वयं के प्रचार प्रसार में खर्च कर रहे है | सरकारी तिजोरी से लोक कल्याणकारी योजनाओं के नाम पर खुद की तस्वीरों वाले बड़े बड़े विज्ञापन और होल्डिंग्स लगाए जा रहे है | टीवी पर मोटी रकम खर्च कर विज्ञापन दिए जा रहे है, ताकि जनता नहीं बल्कि दिल्ली में बैठे उनके आका उनका गुणगान देख सुन सके | जनता की कमाई प्रचार के नाम पर लुटाई जा रही है | और अब अरबों की रकम की वसूली के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खट खटाया गया है |
भारत के समाचार पत्रों के संगठन इंडियन न्यूजपेपर सोसायटी ने सुप्रीम कोर्ट में लिखित तथ्यों के साथ कहा है कि केंद्र और राज्य सरकारों पर विज्ञापन के मद का विभिन्न मीडिया घरानों का 1,800 करोड़ रुपए का बकाया है। आईएनएस ने हलफनामा दाखिल कर चिंता जाहिर की है कि निकट भविष्य में यह रकम मिलने की संभावना बहुत कम है। आईएनएस के हलफनामे में कहा गया है कि मीडिया उद्योग की माली हालत संतोषजनक नहीं है | टीवी चैनलों के समूह न्यूज ब्रॉडकास्टर्स एसोसिएशन ने भी अलग हलफनामे में इस तथ्य की ओर सुप्रीम कोर्ट का ध्यान आकर्षित किया है।
NBA और INS दोनों संगठनों ने अपना हलफनामा पत्रकारों के संगठनों- नेशनल अलायंस आफ जर्नलिस्ट्स, दिल्ली यूनियन आफ जर्नलिस्ट्स और मुंबई यूनियन ऑफ जर्नलिस्ट्स की जनहित याचिका पर दिया है। एनबीए द्वारा दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि लॉकडाउन से समाचार उद्योग का कारोबार गंभीर आर्थिक संकट में है। समाचार उद्योग को आर्थिक संकट से उबारने के लिए सरकार ने अभी तक पैकेज या उपायों की घोषणा नहीं की, जबकि यह चरमराने के कगार पर पहुंच गया है।
उधर पत्रकारों के संगठनों ने याचिका में आरोप लगाया था कि लॉकडाउन का हवाला देकर समाचार पत्रों के प्रबंधक पत्रकारों सहित अन्य कर्मचारियों को नौकरी से निकाल रहे हैं। मनमानी वेतन कटौती हो रही है। कई कर्मचारियों को अनिश्चितकाल के लिए बिना वेतन छुट्टी पर भेजा जा रहा है। पत्रकारों ने रोजीरोटी और आजीविका का संकट बताकर न्याय की मांग की है |
आईएनएस ने अपने हलफनामे में कहा है कि डीएवीपी पर विज्ञापनों का 1500 से 1800 करोड़ रुपए बकाया है। इसमें से 800 से 900 करोड़ प्रिंट मीडिया का है। इतनी बड़ी राशि कई महीनों से बकाया है | सरकारी विज्ञापनों में करीब 80 से 85 प्रतिशत की कमी हुई है। लॉकडाउन से अन्य विज्ञापनों में करीब 90 प्रतिशत की गिरावट आई है। यही नहीं विभिन्न प्रदेशों की राज्य सरकारों ने भी विज्ञापन पर खूब खर्च किया | लेकिन मीडिया घरानों को भुगतान नहीं किया |
आईएनएस ने अपनी दलील देते हुए हलफनामे में यह भी कहा है कि मीडिया और मनोरंजन उद्योग एफएमसीजी, ई-कामर्स, वित्तीय कंपनियों और आटोमोबाइल उद्योग जैसे दूसरे उद्योगों के विज्ञापनों पर खर्च होने वाली राशि पर चलता है। लॉक डाउन से यह बुरी तरह प्रभावित हुआ है। उसके मुताबिक विज्ञापनों में कमी से कई समाचार पत्र, पत्रिकाओं को प्रकाशन पन्नों की संख्या कम करनी पड़ी।उसने अपनी दलीलों में यह भी दावा किया कि कुछ अखबारों को संस्करण बंद करने पड़े। NBA और INS संगठनों ने जनहित याचिका खारिज करने की गुहार करते हुए कहा कि अनेक समाचार ब्रॉडकास्टर उसके सदस्य हैं और सभी निजी प्रतिष्ठान हैं। इसलिए इनके खिलाफ कोई रिट याचिका दायर नहीं की जा सकती।
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फ़िलहाल देश की सरकारी तिजोरी से प्रचार प्रसार के नाम पर खर्च होने वाली मोटी रकम अपव्यय के रूप में देखी जा रही है | सरकारी योजनाओं के प्रचार प्रसार के लिए तमाम राज्यों में अन्य साधनों का उपयोग भी किया जा सकता है | शहरों से लेकर ग्रामीण इलाकों और कस्बो में इस योजनाओं की जानकारी सरकारी दफ्तरों के पटल पर दर्ज की जा सकती है | प्रचार प्रसार के अन्य साधन भी है | इससे सरकारी धन की बचत की जा सकती है | आम जनता को सरकारी धन के दुरूपयोग के इस मामले को लेकर अदालत में अपना पक्ष रखने के लिए जागरूकता दिखानी होगी |