सीआरपीएफ का दावा, नक्सल प्रभावित इलाकों में माओवादी हथियार डालने को हुए मजबूर, नक्सली दलम को अब नहीं मिल रहे नए रंग रूट, नोट बंदी और कोरोना संक्रमण ने देश में तोड़ी नक्सलियों की रीढ़ की हड्डी, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, उड़ीसा और झाड़खंड में बेहतर परिणाम आये सामने

0
8

नई दिल्ली / देश में नक्सलवाद की जड़े बुरी तरह से टूट रही है | अब नौजवान हो या फिर किसी भी उम्र के ऐसे लोग जो नक्सलवादियों से सहानुभूति रखते है, वे उनसे दूरियां बना रहे है | इसके चलते देश में नक्सलवाद की उलटी गिनती शुरू हो गई है | केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल का दावा है कि देश में नक्सल प्रभावित क्षेत्र यानी वामपंथी उग्रवाद का दायरा सिमटता जा रहा है। उसके मुताबिक गुरिल्ला लड़ाई में पारंगत रहे नक्सली अब हथियार डालने को मजबूर हो रहे हैं। इन्हें भर्ती के लिए नए साथी नहीं मिल रहे हैं | यही नहीं केंद्रीय सुरक्षा बलों की लगातार दबिश के चलते नक्सलियों की संख्या में लगातार कमी देखी जा रही है। खासतौर पर सीआरपीएफ ने लोकल पुलिस को साथ लेकर नक्सलियों के कई बड़े किलों को ध्वस्त कर दिया है।

FILE IMGE

दूसरी ओर, केंद्र एवं राज्य सरकार ने सड़कें, मोबाइल टावर, बैंक, स्वास्थ्य और शिक्षा का नेटवर्क बढ़ाकर नक्सलियों को ये विकल्प दे दिया कि वे आगे का रास्ता खुद चुनें। उन्हें सुरक्षा बलों की गोली का निशाना बनना है या आत्मसमर्पण कर दोबारा मुख्यधारा में शामिल होना है। जानकारी के मुताबिक बीते 1950 दिनों में औसतन दो नक्सली रोजाना आत्मसमर्पण कर रहे हैं। पिछले पांच साल में करीब 36 सौ नक्सली हथियार डाल चुके हैं।

FILE IMAGE

सीआरपीएफ के एक बड़े अधिकारी का कहना है कि नक्सलियों को आत्मसमर्पण तक लाना, आसान बात नहीं थी। इसके लिए सुरक्षा बलों ने भारी जान-माल का नुकसान उठाया है। कोबरा जैसी ट्रेड यूनिट का गठन करना पड़ा। बड़े इलाकों में रहे नक्सलियों के प्रभाव को समाप्त किया गया। अब छत्तीसगढ़, झारखंड, ओडिशा, महाराष्ट्र और तेलंगाना आदि राज्यों में नक्सलियों के सामने नई भर्ती का संकट खड़ा हो गया है। स्थानीय आबादी ने उनसे दूरियां बना ली है | इस अफसर के मुताबिक ऐसा नहीं है कि वे स्थानीय युवाओं से संपर्क नहीं करते। उनका लगातार गांवों में आना-जाना लगा रहता है। उन्होंने बताया कि दो वर्षों में डरा धमका कर अनेक युवाओं को अपने समूह में भर्ती कर लिया था। कुछ समय बाद जब नए लड़कों ने देखा कि अब सुरक्षा बल उनसे ज्यादा दूरी पर नहीं हैं तो उन्होंने आत्मसमर्पण का रास्ता चुना।

FILE IMAGE

साथ ही उन इलाकों में अब स्कूल, अस्पताल, मोबाइल नेटवर्क, खेती और दूसरे कामधंधे भी शुरू होने लगे हैं। इन सब बातों के चलते नई भर्ती पर बुरा असर पड़ा। खासतौर पर, आंध्रप्रदेश के पश्चिम गोदावरी, गुंटूर, बिहार के बांका, चंपारण, जमुई, जहानाबाद, नालंदा, नवादा और पश्चिम चंपारण में नई भर्ती का संकट खड़ा हो गया है।

छत्तीसगढ़, जिसे नक्सलियों का गढ़ कहा जाता है, वहां भी आत्मसमर्पण के मामले बढ़ रहे हैं। कांकेर, कोंडागांव, महासमु्ंद, नारायणपुर, राजनंदगांव, सुकमा, बीजापुर व दंतेवाड़ा आदि में भी नक्सलियों को नए लड़के नहीं मिल पा रहे हैं। झारखंड के कोडरमा, लोहरडगा, पलामू, सिमडेगा, चतरा, गिरिडीह, गुमला और खूंटी में भी यही स्थिति है। यहां के गांव में नक्सलियों का बराबर संपर्क रहता है। वे अपनी कथित विचारधारा की किताबें देकर युवाओं को समूह में शामिल करना चाहते हैं। हालांकि उन्हें इसमें खास सफलता नहीं मिल रही है। तेलंगाना का आदिलाबाद, जयशंकर भूपालपल्ली, खम्मम, कोमारम भीम, ओडिशा के बोलनगीर, बौध, देवगढ़, कंधमाल, कोरापुट, मलकानगिरी, नुआपाड़ा और रायगढ़ आदि में भी नई भर्ती का संकट चल रहा है।

FILE IAMGE

सीआरपीएफ के आंकड़ों के मुताबिक साल 2015 में 570 नक्सलियों ने आत्मसमर्पण किया था। इसके अगले साल 1442, 2017 में 685, 2018 में 644, 2019 में 440 और इस साल 15 अगस्त तक 241 नक्सली आत्मसमर्पण कर चुके हैं। 2015 में 89, 2016 में 222, 2017 में 136, 2018 में 225, 2019 में 145 और मौजूदा वर्ष में 54 वामपंथी उग्रवादी मारे गए हैं। देश के नब्बे जिलों को नक्सल प्रभावित क्षेत्र माना जाता रहा है। हालाँकि गत वर्ष 61 जिलों में ही वामपंथी उग्रवाद से सम्बंधित हिंसा की घटनाएं सामने आई थीं। इस साल की बात करें तो पहले छह माह में केवल 46 जिलों में ऐसी घटनाएं देखने को मिली हैं