सच बात है, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने चार सालो में जो कार्य किया वो पिछले 15 सालो में बीजेपी नहीं कर पाई। कांग्रेस का यह दावा वाजिब नजर आता है, सीएम बघेल और तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह के कार्यकाल में लिए गए कर्जो का ब्यौरा और विकास कार्यो का लेखा जोखा जनता के दरबार में दिखाई देने लगा है। राजनैतिक दलों और उनके नेताओ के काम काज का आकलन जनता करने लगी है। इस बीच केंद्रीय जाँच एजेंसियों की सक्रियता ने जनता को सोचने पर विवश कर दिया है। वही मुख्यमंत्री बघेल अब तक तय नहीं कर पाए है कि उनकी कमाई पर्याप्त है, या फिर और प्राप्त है, लिहाजा उनकी कार्यप्रणाली ही नहीं प्रवर्ति पर भी लोगो की निगाहें लगी हुई है।
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प्रत्यक्षं किम प्रमाणम, आईटी और ईडी के साथ मुख्यमंत्री के करीबियों का लेना देना जनता देख रही है, एजेंसियां ढूंढ-ढूंढ कर ला रही है और सरकारी तिजोरी पर हाथ साफ करने वाले अपने असल ठिकानों पर पहुचाये जा रहे है, जाहिर हो रहा है कि भ्रष्टाचार और शिष्टाचार के बीच छत्तीसगढ़ में रंग भेद की नीति ख़त्म कर दी गई है। मुख्यमंत्री कार्यालय से ही समस्त प्रकार के भ्रष्टाचार को खाद-पानी मुहैया हो रहा है, साफ है ये पब्लिक है सब जानती है। वरिष्ठ पत्रकार सुनील नामदेव ने राज्य के प्रशासनिक और सियासी हालचाल का जायजा लेने के बाद पाया किछत्तीसगढ़ में भा से भ्रष्टाचार और भू से भूपेश, दोनों का मतलब एक ही निकाला जाने लगा है।
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रायपुर / दिल्ली : राज्य में सरकारी धन की बंदरबाट और खुली लूट के दौर में प्रेस-मीडिया, भी कहां पीछे रहने वाला। रोजी रोटी का सवाल जो है, कुछ तो मजबूरियां रही होगी, यूँ ही कोई बेवफा नहीं होता। लेकिन पत्रकारिता के नशे में ऐसे कई बा वफ़ा भी है, जो कलम के सिपाही के रूप में प्रजातंत्र की तंदरुस्ती की आहुतियां डाल रहे है, राज्य की मौजूदा दौर में बिगड़ती कानून व्यवस्था के बीच कलमकारो की चुनौती भी कम जोखिम भरी नहीं है।
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सबसे बुरा हाल तो इसी प्रदेश छत्तीसगढ़ का है। यहां पत्रकारिता मिशन जरूर है, लेकिन इसे जारी रखने के लिए मालिकों को नाना प्रकार के उद्योग धंधे करने पड़ रहे है, उनके लिए यह सेवा मात्र है, हाथ जला कर हवन करना पड़ रहा है। जबकि पत्रकारिता की आढ़ में पनप रहे गोरखधंधो से सेठ जी मालामाल और कलमकार बेहाल है, सच लिखने की सजा प्रदेश के दर्जनों पत्रकार भोग रहे है।
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वही पत्रकारिता संस्थानों में बैठे सेठ जी सरकारी तिजोरी से निकलने वाली रकम गिनने में व्यस्त है। छत्तीसगढ़ में अपने मार्ग से भटक चुकी पत्रकारिता को राह पर लाने के लिए जनता को ही ठोस कदम उठाना होगा अन्यथा वोट के सौदागर एक बार फिर लोकतंत्र में जनता के साकार होते सपनो पर पानी फेर सकते है।
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पत्रकारिता का दामन थाम कर लक्ष्मी का गुणगान कर रहे प्रेस मीडिया कर्मियों ने सरस्वती से ऐसी दूरियां बनाई है कि पत्रकारों की आवाज नक्कार खाने में तूती की आवाज की तरह दब कर रह गई है, अपने गुनाहो को छिपाने के लिए राजनीति के बघेलों ने सरकारी संरक्षण में पत्रकारों का अवैध शिकार करना शुरू कर दिया है, ताकि जिसकी लाठी उसकी भैस के फार्मूले पर इंसाफ की आवाज को दबाया जा सके।
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गौरतलब है कि पत्रकारों का चोला ओढ़ कर प्रेस मीडिया कर्मियों की जमात इन दिनों जनता को दिग्भ्रमित करने के लिए सरकार की हाँ में हाँ मिलाकर अपना भोंपू खूब बजा रहे है। कतिपय नौकरशाहों और राज नेताओ की तर्ज पर उनके लिए भी सेवा का धंधा, मेवा बन कर रह गया है।
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छत्तीसगढ़ में भ्रष्टाचार के चलते केंद्रीय जाँच एजेंसियां डेरा डाले हुए है, कई कारोबारियों नेताओ और नौकरशाहों के ठिकानो पर आयकर और प्रवर्तन निर्देशालय की छापेमारी में करोडो की बेनामी संपत्ति का रोजाना खुलासा हो रहा है। एक से बढ़कर एक घोटालो में सरकार में प्रभावशील लोग ही एजेंसियों के हत्थे चढ़ रहे है, उनकी नामी बेनामी सम्पत्तियो का खुलासा हो रहा है ।
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हाई कोर्ट बिलासपुर से लेकर सुप्रीम कोर्ट दिल्ली तक राज्य में व्याप्त भ्रष्टाचार की गूंज सुनाई दे रही है, इस सब के लिए प्रशासनिक तौर पर जिम्मेदार पुलिस मुख्यालय और चीफ सेकेट्री का दफ्तर गुनाहगारो, आरोपियों और जमानत पर रिहा अभियुक्तों के हाथो की कठपुतली बन गया है। राज्य के सामाजिक और पुलिस-प्रशासनिक हालात संक्रमण काल में बताये जाते है।
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बताया जा रहा है कि प्रदेश में कानून व्यवस्था बनाये रखने के लिए रासुका जैसा कड़ा कानून एक बार फिर प्रभावशील तरीके से लागू किए जाने के निर्देश जारी किये गये है। मैदानी इलाको में शांति व्यवस्था बनाये रखने के लिए पुलिस और प्रशासन को जमकर पसीना बहाना पड़ रहा है, संवेदनशील घटनाओ को लेकर कारोबारी अपने व्यापारिक प्रतिष्ठान बंद रख स्वस्फूर्त आंदोलनकारियो का समर्थन कर रहे है, खतरे की घंटी माना जा रहा है।
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बिरनपुर हत्याकांड की बानगी बिहार और झारखण्ड जैसे राज्यों में होने वाली आम घटनाओ की तर्ज पर अंजाम दी जा रही है, इसे पुलिस के ख़ुफ़िया तंत्र की बड़ी चूक से जोड़ कर देखा जा रहा है।
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छत्तीसगढ़ की गिनती देश के शांति प्रिय राज्यों में होती है,बाहरी प्रदेशो के लोगो के अलावा कई उद्योगपति यहां निवेश के लिए उत्साहित नजर आते है, विकास की दौड़ में इस प्रदेश की रफ़्तार कई विकसित महानगरों को काफी पीछे छोड़ सकती है, यह प्रदेश अपने मौजूदा संसाधनों से ही नई ऊंचाइयों को छू सकता है, लेकिन भ्रष्टाचार की तेज गति के चपेट में आने से जनता के सपने दिनों दिन चकना चूर हो रहे है, मात्र चार सालो के भीतर क्या से क्या हो गया छत्तीसगढ़…?
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उम्मीद की जानी चाहिए कि राज्य की जनता ही कर्णधारो को उनका भुला हुआ छत्तीसगढ़ याद दिलाए, वही पुराना छत्तीसगढ़, जो बीजेपी के हाथो से धोखे से कांग्रेस के हाथो में चला गया था, ऐसा छल जो सत्ता पाने के लिए जनता से झूठे वादे कर कुर्सी हथिया ली गई थी, लेकिन जिस दोषारोपण के साथ कोंग्रस ने बीजेपी नेताओ को जनता के कटघरे में खड़ा किया था, बीजेपी को सत्ता से उखाड़ फेंका था, उनमे से किसी एक के खिलाफ भी अदालत में चार्जशीट नहीं पेश कर पाई, इसे तो दूर की कौड़ी समझिये, तत्कालीन मुख्यमंत्री रमन सिंह के मंत्रिमंडल में शामिल किसी भी मंत्री के खिलाफ सिर्फ एक आरोप भीप्रमाणित नहीं कर पाई।
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ऐसे में मुख्यमत्री भूपेश बघेल से सवाल तो बनता ही है कि उनके द्वारा बीजेपी पर झूठे दावे वादे कर उनकी कांग्रेस पार्टी ने सत्ता हथियाई थी ?
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छत्तीसगढ़ में चुनावी बेला सिर पर है, जनता की रहनुमाई और खिदमदगारी के लिए बीजेपी और कांग्रेस के बीच ही मुख्य मुकाबले के आसार है। दिल्ली से अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने भी राज्य में अपना डेरा डाल लिया है, गांव कस्बो से लेकर शहरी इलाको तक पार्टी अपनी पकड़ मजबूत बनाने में जुटी है, हालांकि आम आदमी पार्टी का राज्य में कोई ठोस वजूद नहीं है, फिर भी उसकी रीति-नीति कई लोगो को प्रभावित कर रही है।
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प्रदेश में तीसरी शक्ति को लेकर अभी तक कोई तीसरा दल सामने नहीं आया है जो बीजेपी और कांग्रेस को कड़ी टककर दे सके। प्रथम मुख्यमंत्री अजित जोगी की जनता कांग्रेस पार्टी ने खूब सुर्खियां बटोरी थी लेकिन मौजूदा चार सालो में पार्टी का प्रदर्शन सिफर रहा। उनके पुत्र अमित जोगी फ़िलहाल पार्टी की बाग़डोर खुद संभाले हुए है, बीजेपी या कांग्रेस किस ओर उनके समीकरण फिट बैठेंगे, अभी यह कहना मुश्किल है। राजनीतिक धरातल पर जोगी कांग्रेस का फ़िलहाल कही भी ठोस वजूद नजर नहीं आ रहा है।
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छत्तीसगढ़ में सत्ता की चाबी बस्तर में निर्मित होती है, लेकिन यहां अब की बार बीजेपी और कांग्रेस के मुकाबले सर्व आदिवासी समाज कोहराम मचा रहा है, गांव-गांव तक आदिवासियों की जुबान पर सामाजिक नेताओ का नाम है, लिहाजा राजनैतिक नेताओ के लिए सामाजिक बंधनो को तोड़ पाना तेढी खीर साबित हो रहा है। हाल ही के विधान सभा चुनाव में तमाम राजनैतिक दल इसकी बानगी देख चुके है।
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आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग अभी से जोर पकड़ रही है, ऐसे में OBC वर्ग से आने वाले मुख्यमंत्री बघेल के लिए अपनी कार्यप्रणाली को पारदर्शितापूर्ण बनाये रखना सबसे बड़ी जोखिम भरी चुनौती है, फ़िलहाल तो भ्रष्टाचार के छींटो से उनका दामन भी दागदार हो रहा है, मुख्यमंत्री कार्यालय पर भी कोयले की कालिख साफ-साफ नजर आने लगी है। प्रदेश में स्वच्छ छवि के मुख्यमंत्री की तलाश जनता को भी है, ऐसे में वर्ष 2023 में कौन बनेगा मुख्यमंत्री ? भविष्य के गर्त में नजर आ रहा है।
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छत्तीसगढ़ में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उनकी कार्यप्रणाली दोनों सवालों से घेरे में है। सीएम बघेल की उप सचिव सौम्या चौरसिया समेत कई नौकरशाह भारी भरकम भ्रष्टाचार के दायरे में है, ऐसे में पारदर्शिता पूर्ण कार्यप्रणाली के लिए उन्हें बाध्य किया जाना चाहिए, राजनीति में जब राजा ही लुटेरों की फौज का सरदार बन जाये तो जनता की जान माल की सुरक्षा भगवान भरोसे ही है।
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यदि वे ठान ले कि आज से अवैध वसूली बंद, शराब पर नियंत्रण के साथ उसके शौकीनों को निर्धारित दाम पर नियत स्थान पर उपलब्ध, भ्रष्टाचार पसंद सरकारी सेवको के लिए टेबल के नीचे से दी जाने वाली रिश्वत की रकम के लिए बार कोड सिस्टम स्थापित कर दिया जाए तो कम से कम राज्य के हालात उस दौर में पहुंच जायेंगे, जब वर्ष 2018 में बीजेपी ने सत्ता का हस्तांतरण किया था। मौजूदा दौर में तो लोग कहने लगे है, कोई लौटा दे मेरे वो बीते हुए दिन…।