
छत्तीसगढ़ में मंत्रियों और आला पुलिस अधिकारियों के लिए गार्ड ऑफ ऑनर को अब विश्राम की मुद्रा में भेज दिया गया हैं, उस पर पाबंदी लगा दी गई हैं। अंग्रेजी हुकूमत से जुड़ा यह “शाही सम्मान” मंत्रियों और आला पुलिस अधिकारियों की शान – शौकत का खास हिस्सा था। लेकिन राज्य सरकार ने इस पर करारी चोट करते हुए नई दलीले दी हैं, इसके साथ ही राज्य में “गार्ड ऑफ ऑनर” अब कुछ खास संवैधानिक प्रमुखों को प्राप्त होगा। लेकिन प्रभावित मंत्री और अधिकारी ही क्यों हैं निशाने पर, शीर्ष क्यों नहीं ? राजनैतिक गलियारों में यह सवाल उठ रहा है ? कहा जा रहा है, कि मंत्री और पुलिस के अधिकारी भी तो संवैधानिक पदों पर काबिज़ है, फिर उनसे ही परहेज़ क्यों..? वे इसके पीछे राजनैतिक एंगल भी देख रहे हैं।

रायपुर : अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे “गार्ड ऑफ ऑनर” व्यवस्था पर छत्तीसगढ़ में रोक लगा दी गई है। भारत सरकार ने “लाल बत्ती” व्यवस्था को खत्म कर VIP कल्चर पर पाबन्दी लगा दी थी, इसी तर्ज पर राज्य में “गार्ड ऑफ ऑनर” की बिदाई कर दी है। हालाँकि, मुख्यमंत्री को “गार्ड ऑफ ऑनर” यथावत बना रहेगा। इसे अंग्रेजी हुकूमत के प्रतीक के रूप में देखा जाता था। छत्तीसगढ़ सरकार ने एक बड़े प्रशासनिक फैसले के बाद इस प्रोटोकॉल पर रोक लगा दी है।

गणतंत्र दिवस से पूर्व लिए गए इस फैसले को जनहित के मद्देनजर बड़े कदम के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन इसके साथ राज्य में नई बहस भी छिड़ गई है,दावा किया जा रहा है, कि औपनिवेशिक काल से चली आ रही यह परंपरा वर्तमान प्रशासनिक आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं है और इससे पुलिस बल की कार्यक्षमता प्रभावित होती है। सवाल उठ रहा है, कि प्रदेश में यदि ऐसी स्थिति है, तो सिर्फ मंत्रियों और पुलिस के अधिकारियों को ही क्यों इस व्यवस्था से दरकिनार कर दिया गया ? हालाँकि, इस नई व्यवस्था से प्रभावित होने वाले मंत्रियों और पुलिस अधिकारियों ने इस बारे में कोई प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की है।

आमतौर पर प्रवास के दौरान मंत्रियों और वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को सामान्य अवसरों पर बतौर प्रोटोकॉल दिए जाने वाले गार्ड ऑफ ऑनर की व्यवस्था समाप्त करने से पूर्व काफी मंथन किया गया था। अब राज्य में मंत्रियों व् दर्जा प्राप्त प्रतिनिधियों, गृह मंत्री, डीजीपी सहित अन्य उच्च पदस्थ अधिकारियों को जिला दौरों, निरीक्षण, कार्यक्रमों और औपचारिक यात्राओं के दौरान सलामी गार्ड नहीं दिया जाएगा। भारत में गार्ड ऑफ ऑनर उन व्यक्तियों को दिया जाता है, जो संवैधानिक या आधिकारिक रूप से मान्यता प्राप्त पदों पर आसीन होते हैं। इनमें भारत के राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, राज्यपाल, मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री भी शामिल हैं।

हालांकि, इस बारे में जानकारी देते हुए गृहमंत्री विजय शर्मा ने साफ़ किया, कि मुख्यमंत्री के लिए “गार्ड ऑफ ऑनर” की व्यवस्था यथावत बनी रहेगी। उन्होंने कहा, कि राष्ट्रीय महत्व के कार्यक्रम तथा राजकीय आयोजनों में पहले की तरह गार्ड ऑफ ऑनर मिलता रहेगा। गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस, 21 अक्टूबर को पुलिस स्मृति दिवस, 31 अक्टूबर को राष्ट्रीय एकता दिवस, राज्य स्तरीय समारोहों और पुलिस दीक्षा परेड जैसे अवसरों पर सलामी गार्ड की परंपरा जारी रहेगी। आदेश में यह भी स्पष्ट किया गया है कि संवैधानिक पदों पर बैठे व्यक्तियों और विशिष्ट अतिथियों के लिए निर्धारित प्रोटोकॉल पहले की तरह लागू रहेगा और उनके लिए गार्ड ऑफ ऑनर की व्यवस्था बनी रहेगी।

गार्ड ऑफ ऑनर क्या है ? कब से आया अस्तित्व में, इतिहास के झरोखों से –
गार्ड ऑफ ऑनर (Guard of Honour) की परंपरा की सटीक शुरुआत को लेकर जानकारों के बीच मतभेद देखें जाते है। आमतौर पर ब्रिटिश काल में मैदानी खेल के संदर्भों में, 1955 में मैनचेस्टर यूनाइटेड द्वारा चेल्सी को दिए गए गार्ड ऑफ ऑनर से इस परंपरा को जोड़ कर देखा जाता है। वहीं, सैन्य और राजकीय संदर्भों में, यह ब्रिटिश शासन के दौरान ईस्ट इंडिया कंपनी की देख-रेख में पहली बार भारत में शुरू किया गया था, जो गणमान्य व्यक्तियों और शहीद सैनिकों के सम्मान में दी जाने वाली एक पुरानी प्रथा के रूप में प्रचलित थी। इसके मूल तथ्य की भावना को ध्यान में रखते हुए 18वीं शताब्दी के मध्य में सैनिकों के सम्मान के लिए अस्तित्व में लाया गया था।

ऐतिहासिक मामलो के जानकार दिलीप राय बताते है, प्रेसिडेंट्स बॉडीगार्ड की स्थापना के मूल में गार्ड ऑफ ऑनर की भावना ही थी। उनके मुताबिक, पहली बार इसे फुटबॉल के मैदान में एक स्वैच्छिक सम्मान की तर्ज पर लिया गया था,यह कोई अनिवार्य नियम नहीं था,बाद के वर्षों में इसे प्रोटोकॉल के रूप में प्रदर्शित किया गया था। रायपुर में निवासरत दिलीप राय बताते है, कि ब्रिटिश शासनकाल से चली आ रही यह परंपरा उच्च पदों पर आसीन व्यक्तियों राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और शहीद सैनिकों को ही सम्मान के लिए प्रदान की जाती थी। लेकिन राजनीति के हावी होने के बाद प्रभावशील नेताओं ने इसे ओहदा प्राप्त लोगों के लिए भी लागू कर दिया था। उनके मुताबिक इसकी ऐतिहासिक जड़ें 1773 से प्रेसिडेंट्स बॉडीगार्ड (PBG) जैसी इकाइयां में मौजूद रही थी, यह खेलों में 1950 के दशक से लोकप्रिय हुई और भारतीय सशस्त्र बलों की परंपरा का हिस्सा बन गई।
मैनपाट और चिल्फी घाटी में पारा शून्य की ओर, उठाना हो लुफ्त ठंड का,चले आइए इस ओर…




