
नई दिल्ली। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने मंगलवार को एक ऐतिहासिक और संवैधानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण कदम उठाते हुए राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के परामर्श पर केंद्र सरकार और सभी राज्यों को नोटिस जारी किया है। राष्ट्रपति ने संविधान के अनुच्छेद 143(1) के तहत परामर्श मांगा है कि क्या सर्वोच्च न्यायालय राज्यपालों और राष्ट्रपति के लिए राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने की कोई समयसीमा निर्धारित कर सकता है?
संविधान पीठ की सुनवाई
मुख्य न्यायाधीश बी.आर. गवई की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ — जिसमें न्यायमूर्ति सूर्यकांत, विक्रम नाथ, पी.एस. नरसिम्हा और ए.एस. चंदुरकर शामिल हैं — ने इस मामले को ‘राष्ट्रीय महत्व’ का बताते हुए विस्तृत सुनवाई की घोषणा की है।
पीठ का कहना था:
“यह एक अत्यंत संवेदनशील और सार्वजनिक महत्व का प्रश्न है, जिसकी गहन विवेचना आवश्यक है।”
अब इस मुद्दे पर प्रारंभिक सुनवाई 29 जुलाई को और विस्तृत बहस अगस्त के मध्य से शुरू होगी।
क्या है राष्ट्रपति का सवाल?
राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से यह परामर्श मांगा है कि क्या राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर निर्णय लेने के लिए कोई समयसीमा तय की जा सकती है?
उन्होंने अपने संदर्भ में 14 प्रमुख प्रश्न उठाए हैं। इसमें उन्होंने 8 अप्रैल, 2024 के एक फैसले पर भी स्पष्टीकरण मांगा है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपाल द्वारा विधेयक को राष्ट्रपति के पास भेजने के बाद निर्णय के लिए तीन महीने की समयसीमा निर्धारित की थी।
अनुच्छेद 200 और 201 की भूमिका
यह मामला सीधे तौर पर संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 से जुड़ा है, जो राज्यपाल और राष्ट्रपति की विधायी प्रक्रिया में भूमिका को परिभाषित करते हैं। यह पहली बार है जब इस प्रावधान की व्याख्या समयसीमा के साथ करने की बात आई है।
संवैधानिक महत्व और प्रभाव
राष्ट्रपति द्वारा अनुच्छेद 143(1) का उपयोग बताता है कि यह मामला सिर्फ कानूनी नहीं बल्कि राष्ट्रीय महत्व का भी है। यह अनुच्छेद राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय से ‘परामर्श’ लेने का अधिकार देता है — हालांकि सुप्रीम कोर्ट की राय बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन गंभीर प्रभावशाली मूल्य रखती है।
सुप्रीम कोर्ट ने सभी पक्षों से अगले मंगलवार तक जवाब दाखिल करने को कहा है।
क्यों है यह मुद्दा अहम?
यह मामला आगे चलकर राज्य सरकारों के अधिकारों की सुरक्षा से भी जुड़ सकता है।
यह निर्णय तय करेगा कि राज्यपाल या राष्ट्रपति किसी विधेयक को अनिश्चितकाल तक रोक नहीं सकते।
इससे केंद्र और राज्यों के बीच संवैधानिक संतुलन को मजबूती मिल सकती है।
विधायिका की जवाबदेही और पारदर्शिता में सुधार हो सकता है।