मुंबई। 2008 के मालेगांव बम धमाके मामले में NIA की विशेष अदालत ने सोमवार को ऐतिहासिक फैसला सुनाया। कोर्ट ने साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, लेफ्टिनेंट कर्नल प्रसाद पुरोहित समेत सभी सात आरोपियों को सभी आरोपों से बरी कर दिया। लेकिन इस फैसले की सबसे अहम बात थी अदालत की वो टिप्पणी, जिसमें कहा गया कि UAPA लगाने के लिए जरूरी वैधानिक मंजूरी ही नहीं ली गई थी।
UAPA लगाने की प्रक्रिया में भारी चूक
विशेष अदालत के जज ए.के. लाहोटी ने अपने आदेश में स्पष्ट किया कि UAPA (गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम अधिनियम) लगाने के लिए सरकार की स्वीकृति आवश्यक होती है। इस केस में मंजूरी के जो आदेश पेश किए गए थे, वे कानूनी रूप से दोषपूर्ण पाए गए। अदालत ने कहा कि जब मंजूरी ही वैध नहीं है, तो कानून की धाराओं के तहत मुकदमा चलाना भी असंवैधानिक हो जाएगा। इसी तकनीकी आधार पर UAPA की धाराओं को रद्द करते हुए केस को खत्म कर दिया गया।
UAPA क्या है? जानिए इस कानून की ताकत और विवाद
UAPA, यानी Unlawful Activities (Prevention) Act, देश का सबसे कठोर कानून माना जाता है। इसे पहली बार 1967 में लागू किया गया था और अब तक इसमें छह बार संशोधन हो चुका है।
मुख्य प्रावधान:
धारा 15 आतंकवादी गतिविधि की परिभाषा देती है।
5 साल की सजा से लेकर मृत्युदंड तक का प्रावधान है।
सरकार को अधिकार है कि किसी संगठन या व्यक्ति को आतंकी घोषित कर सके।
सिर्फ शक या संभावित खतरे के आधार पर भी गिरफ्तारी की जा सकती है।
NIA को मिलती है विशेष ताकत:
UAPA के तहत राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) को यह अधिकार है कि वह बिना राज्य सरकार की अनुमति के किसी की संपत्ति जब्त कर सकती है, देशभर में जांच चला सकती है और लंबी हिरासत ले सकती है।
फैसले के मायने क्या हैं?
यह फैसला न केवल मालेगांव केस के आरोपियों को राहत देने वाला है, बल्कि यह UAPA की कानूनी प्रक्रिया और प्रक्रियात्मक पारदर्शिता को लेकर भी गंभीर सवाल खड़े करता है। इससे पहले भी कई मामलों में देखा गया है कि UAPA के तहत केस तो दर्ज हो गए, लेकिन मुकदमे सबूतों की कमी और कानूनी त्रुटियों के चलते कमजोर हो गए।
