नई दिल्ली / पद्मविभूषण और लगातार तीन बार फिल्मफेयर पुरुस्कारों से सम्मानित प्रख्यात गीतकार गोपाल दास नीरज चलते-फिरते महाकाव्य थे। वह गर्व से कहते थे कि आत्मा का शब्द रूप है काव्य। मानव होना यदि भाग्य है तो कवि होना मेरा सौभाग्य…। मेरी कलम की स्याही और मन के भाव तो मेरी सांसों के साथ ही खत्म होंगे। प्रेम गीतों के लिए ख्यात नीरज जीवन भर प्यार के चक्रव्यूह से निकल नहीं पाये या कहें कि वह प्यार के लिए तरसते रहे। उन्हें प्रशंसकों और जनता ने अपार प्यार और सम्मान दिया, लेकिन उनके अंतस में कहीं न कहीं प्यार की कमी जरूर रही। गीतों में वह पीड़ा अक्सर बाहर आ जाती थी। उनका यह गीत इसका प्रमाण है…देखती ही रहो आज दर्पण न तुम, प्यार का यह मुहूरत निकल जायेगा।
नई दिल्ली स्थित एम्स में गोपालदास नीरज ने 19.7. 2018 को अंतिम सांस ली थी। सीने में संक्रमण की शिकायत के बाद उन्हें यहाँ भर्ती कराया गया था। गोपालदास सक्सेना ‘नीरज’ का जन्म 4 जनवरी 1924 को इटावा जिले के पुरावली गांव में हुआ. मात्र छह साल की उम्र में पिता ब्रजकिशोर सक्सेना नहीं रहे और उन्हें एटा में उनके फूफा के यहां भेज दिया गया. नीरज ने 1942 में एटा से हाई स्कूल की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की और परिवार की ज़िम्मेदारी संभालने इटावा वापस चले आए. नीरज रोज़ी-रोटी की तलाश में निकले तो शुरुआत में इटावा की कचहरी में कुछ समय टाइपिस्ट का काम किया उसके बाद सिनेमाघर की एक दुकान पर भी नौकरी की. कुछ समय बाद वह भी जाती रही तो छोटे-मोटे काम करके जैसे-तैसे मां और तीन भाइयों के लिए दो रोटी का जुगाड़ किया.
कुछ समय बाद नीरज को दिल्ली के सप्लाई विभाग में टाइपिस्ट की नौकरी मिली तो कुछ राहत हो गई. नौकरी के दौरान पढ़ने-लिखने का सिलसिला चलता रहा और इसी दौरान कलकत्ता में एक कवि सम्मेलन में शामिल होने का मौका मिला. उनके गीतों की खुश्बू अब फैलने लगी थी और इसी के चलते ब्रिटिश शासन में सरकारी कार्यक्रमों का प्रचार-प्रसार करने वाले एक महकमे में नौकरी पा गए. नीरज को जब यह लगने लगा था कि ज़िंदगी पटरी पर लौट रही है तभी उनके लिखे एक गीत के कारण उन्हें नौकरी गंवानी पड़ी और वह कानपुर वापस लौट आए. बाल्कट ब्रदर्स नाम की एक प्राइवेट कम्पनी में पांच वर्ष तक टाइपिस्ट की नौकरी करने के साथ प्राइवेट परीक्षाएं देकर उन्होंने 1949 में इंटरमीडिएट, 1951 में बीए और 1953 में प्रथम श्रेणी में हिन्दी साहित्य से एमए किया.
1991 में पद्मश्री, 1994 में यश भारती, 2007 में पद्मभूषण सम्मान से नवाज़ा गया था. उनके जाने से हिंदी साहित्य का एक भरा भरा सा कोना यकायक खाली हो गया. वह अपने चाहने वालों के ऐसे लोकप्रिय और लाड़ले कवि थे जिन्होंने अपनी मर्मस्पर्शी काव्यानुभूति तथा सरल भाषा से हिंदी कविता को एक नया मोड़ दिया और उनके बाद उभरे बहुत से गीतकारों में जैसे उनके ही शब्दों का अक्स नज़र आता है.
नीरज ने एक साक्षात्कार के दौरान कहा था, ‘अगर दुनिया से रुख़सती के वक़्त आपके गीत और कविताएं लोगों की ज़बान और दिल में हो तो यही आपकी सबसे बड़ी पहचान होगी. इसकी ख्वाहिश हर फनकार को होती है.’ 1955 में उन्होंने मेरठ कॉलेज में हिंदी प्रवक्ता के पद पर कुछ समय तक अध्यापन कार्य किया, लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी और अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज में हिंदी विभाग के प्राध्यापक नियुक्त हो गए |इस दौरान ही उन्होंने अलीगढ़ को अपना स्थायी ठिकाना बनाया | यहां मैरिस रोड जनकपुरी में आवास बनाकर रहने लगे |
कवि सम्मेलनों में अपार लोकप्रियता के चलते नीरज को फिल्मी दुनिया ने गीतकार के रूप में ‘नई उमर की नई फसल’ के गीत लिखने का न्योता दिया और वह खुशी-खुशी अपने सपनों में रंग भरने के लिए बंबई रवाना हो गए. उनका लिखा एक गीत ‘कारवां गुज़र गया गुबार देखते रहे’ जैसे उनके नाम का पर्याय बन गया और जीवनपर्यंत देश-विदेश का ऐसा कोई कवि सम्मेलन नहीं था, जिसमें उनके चाहने वालों ने उनसे वह गीत सुनाने की फरमाइश न की हो. उनके गीतों की चमक ऐसी बिखरी कि लगातार तीन बरस तक उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीतकार का अवॉर्ड मिला | 60 और 70 के दशक में उन्होंने फिल्मी दुनिया के गीतों को नए मायने दिए और फिर बंबई से मन ऊब गया तो 1973 में अलीगढ़ वापस चले आए. बाद में बहुत इसरार पर फिल्मों के लिए कुछ गीत लिखे
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उनकी बेहद लोकप्रिय रचनाओं में ‘कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे’ रही:
स्वप्न झरे फूल से, मीत चुभे शूल से,
लुट गए सिंगार सभी बाग के बबूल से,
और हम खड़े-खड़े बहार देखते रहे.
कारवां गुज़र गया, गुबार देखते रहे!
नींद भी खुली न थी कि हाय धूप ढल गई,
पांव जब तलक उठें कि ज़िंदगी फिसल गई…
वे पहले शख्स हैं जिन्हें शिक्षा और साहित्य के क्षेत्र में भारत सरकार ने दो-दो बार सम्मानित किया. 1991 में पद्मश्री और 2007 में पद्मभूषण पुरस्कार प्रदान किया गया. 1994 में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान ने ‘यश भारती पुरस्कार’ प्रदान किया. गोपाल दास नीरज को विश्व उर्दू पुरस्कार से भी नवाजा गया था. उनका मानना था कि 1965 में आई आई उनकी फिल्म ‘नई उमर की नई फसल’ का गीत कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे… और मेरा नाम जोकर फिल्म के गीत ए भाई जरा देख के चलो, आगे ही नहीं पीछे भी… इन दोनों में जीवन का दर्शन छिपा है।
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उनके एक दर्जन से भी अधिक कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। उनकी प्रमुख कृतियों में ‘दर्द दिया है’ (1956), ‘आसावरी’ (1963), ‘मुक्तकी’ (1958), ‘कारवां गुज़र गया’ (1964), ‘लिख-लिख भेजत पाती’ (पत्र संकलन), पंत-कला, काव्य और दर्शन (आलोचना) शामिल हैं |
गोपाल दास नीरज के लिखे गीत बेहद लोकप्रिय रहे. हिन्दी फिल्मों में भी उनके गीतों ने खूब धूम मचायी. 1970 के दशक में लगातार तीन वर्षों तक उन्हें सर्वश्रेष्ठ गीत लेखन के लिए फिल्म फेयर पुरस्कार प्रदान किया गया. उनके पुरस्कृत गीत हैं, काल का पहिया घूमे रे भइया! (वर्ष 1970, फिल्म: चंदा और बिजली), बस यही अपराध मैं हर बार करता हूं (वर्ष 1971, फिल्म: पहचान), ए भाई! ज़रा देख के चलो (वर्ष 1972, फिल्म: मेरा नाम जोकर) | आज इस अमर कवि की जन्म जयंती के मौके पर न्यूज़ टुडे परिवार की ओर से शत शत नमन….