“राज दरबारी”, पढ़िए छत्तीसगढ़ के राजनैतिक और प्रशासनिक गलियारों की खोज परख खबर, व्यंग्यात्मक शैली में, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार ‘राज’  की कलम से… (इस कॉलम के लिए संपादक की सहमति आवश्यक नहीं, यह लेखक के निजी विचार है)

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नेता जी का अजगर : 

अजगर एक ऐसा प्राणी है जो सिर्फ जंगलों में ही नहीं बल्कि गांव कस्बों और शहरी बस्तियों में भी नजर आता है। छत्तीसगढ़ के जंगल महकमे में एक चर्चित अजगर अब एनआरडीए, आरडीए से होते हुए छत्तीसगढ़ हाउसिंग बोर्ड का रुख कर रहा है। कहा जाता है कि रायपुर की अरबो रुपये की बहुप्रतीक्षित शांति नगर रिडेवलपमेंट योजना के लिए खाली कराई जा रही सरकारी  जमीन पर इस अजगर का नया रैन बसेरा बसेगा | चर्चा है कि एक मंत्री के प्रभार वाले सभी विभागों में खास कुनबे का कब्ज़ा हो गया है। विभागीय अफसर हैरानी जताते हुए ही सही लेकिन सिर्फ इसी कुनबे के इशारों पर सरकारी काम काज को गति प्रदान कर रहे है। उनकी दलील है कि कुनबे की एनओसी अनिवार्य है। वर्क आर्डर प्राप्त करने का मामला हो या फिर विभाग में एंट्री का, दोनों ही मसलों में कामयाबी का रास्ता इसी कुनबे से होकर गुजरता है। बात भी सही है, पुरानी सरकार के साथ तालमेल से फील गुड में इजाफा होना लाजमी है। मौजूदा दौर तो बीजेपी का नहीं बल्कि कांग्रेस का है। अब नहीं तो कब गढ़बो नया छत्तीसगढ़।

चरणम शरणम ना गच्छामी : 

कहते है छत्तीसगढ़ में समाचार पत्रों में खबरों की स्थिति सिर्फ उठावना, पगड़ी रस्म, शोक समाचार और 16 पेज रंगीन उपहार के साथ ही सीमित हो गई है। कलमकारों की लेखनी पर सरकारी विज्ञापनों ने ऐसा ग्रहण लगाया है कि कलम ने जरा सा भी खबरों की ओर रुख किया तो विज्ञापनों की रकम में कटौती होना लाजमी है। जाहिर है इन स्थितियों में खबर नवीजों के सामने रोजी रोटी का संकट तो गहराएगा ही। लिहाजा उन्होंने खबरों से नाता तोड़ लिया है। जो सरकार को हो पसंद वे वही बात लिखते है। लेकिन बिलासपुर संभाग के एक नेता जी की हालत इन अख़बारों की तरह हो जाने से इलाके के लोग हैरत में है। बताया जाता है कि नेता जी के खास समर्थकों के बीच पाला बदलने की होड़ मची है। समर्थकों ने एका एक राज्य के मुखिया की शरण में जाना ही मुनासिफ समझा है। “चरण या शरण” की नौबत आने के पीछे उनके भ्रम जाल का टूटना मुख्य वजह बताया जा रहा है। नए खेमे का रुख कर नेता जी के समर्थकों ने राहत की सांस ली है। राजनैतिक गलियारों में चर्चा है कि इस खेमे में आते ही समर्थकों की लॉटरी लगने की संभावना बलबती हो गई है। उन्हें निगम – मंडलों की कुर्सी का स्वाद भी चखने मिलेगा। दिलचस्प बात यह है कि नेता जी के समर्थक एक मंत्री का मोहभंग होने के बाद एक एक कर तमाम समर्थक उनसे किनारा कर रहे है। ऊपर से नेता जी को कोरोना होने की खबर जैसे ही समर्थकों को लगी, वैसे ही उन्होंने उनसे सामाजिक दूरी भी अपनाना शुरू कर दिया है। फ़िलहाल तो नेता जी लोगों को ख़ुशी के मौके पर बधाईयां और अंतिम संस्कार की घड़ी में शोक संतृप्त परिवार को श्रद्धांजलि देने के मामलों में ही सुर्ख़ियों में रहते है। वैसे भी उनकी कुर्सी ने नेता जी को पेशेवर राजनीति से कोसो दूर कर दिया है।  

नो सीएम इन वेटिंग नाउ : 

छत्तीसगढ़ में ढ़ाई ढ़ाई साल के मुख्यमंत्री के फॉर्मूले ने जैसे ही ऊँची उड़ान भरी, वैसे ही उसकी हवा भी निकल गई। देखते ही देखते यह फॉर्मूला जमींदरोज हो गया। इस फॉर्मूले का जब ब्लैक बॉक्स मिला तो उसके जमींदरोज होने का कारण भी सामने आया। राजनीति के जानकार बताते है कि करंट सीएम ने फ्यूचर के सीएम के प्रभाव वाले इलाकों का जैसे – जैसे रुख किया वैसे – वैसे अगले ढ़ाई साल वाले के अरमानों पर पानी फिरने लगा। उनके समर्थक भी उनसे किनारा करने लगे। स्थानीय संगठन के नेता हो या फिर विधायक और पंचायतों के पदाधिकारी, हर किसी ने मौजूदा सूरज को ही प्रणाम किया। उन्होंने राजशाही से ज्यादा लोकशाही पर ही भरोसा जताया। लिहाजा स्वामी भक्ति उन्होंने राजशाही पर नहीं बल्कि लोकशाही के प्रति दिखाने में कोई कसर बाकि नहीं छोड़ी । जानकार कहते है कि अपने खास समर्थकों का सिर्फ रंग ही नहीं बल्कि पाला बदलते देख सीएम इन वेटिंग के अरमानों पर पानी फिरना लाजमी था। हालाँकि सीएम इन वेटिंग का ख्वाब सजाये राजा साहब ने इस कुर्सी में बैठने की जिद्द अभी भी नहीं छोड़ी है। वे दिल्ली – भोपाल का रुख कर मेरी मांग पूरी करों का नारा बुलंद कर रहे है। उधर करंट सीएम के दौरों ने सीएम इन वेटिंग के इलाकों की फिजा ही बदल दी है। इन इलाकों में करोड़ो के निर्माण कार्य और नई योजनाओं के तोहफे से बड़ी आबादी गदगद है। उन्हें लगता है कि ढ़ाई – ढ़ाई साल का फॉर्मूला अप्रासंगिक और प्रदेश में राजनैतिक अस्थिरता को जन्म देगा। लिहाजा जब टेस्टेट सीएम उनके पास है तो किसी नए प्रयोग की जरुरत क्यों?

‘कुर्सी की नीलामी’, सिर मुंडाते ही पड़े ओले : 

छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्य सचिव आरपी मंडल को मिली ‘नई कुर्सी’ पर खतरा मंडराने लगा है। मंडल साहब ने जैसे ही एनआरडीए के चेयरमैन का पद भार ग्रहण किया, वैसे ही उनकी कुर्सी ने दम तोड़ना शुरू कर दिया। एनआरडीए की तमाम योजनाओं की हकीकत देखकर चेयरमैन की कुर्सी का बुरा हाल था। दरअसल एनआरडीए के हज़ारों करोड़ों का लोन लेने और प्रतिमाह लाखों का ब्याज ना भरने के चलते एक – एक कर तमाम योजनाए दम तोड़ने लगी। यहाँ तक कि बैंकों ने एनपीए जारी कर दिया। नतीजतन दांव पर लग गई चेयरमैन की कुर्सी। इस कुर्सी की कुर्की की प्रक्रिया को अंजाम देने की खबर है। बताया जाता है कि कुर्सी की कुर्की के लिए कई बैंकों के अफसरों ने एनआरडीए का रुख किया। दफ्तर पहुँच कर उन्होंने लोन के एवज में ब्याज की मांग की। कुर्सी की कुर्की का क़ानूनी हथकंडा भी दिखाया। उधर आरपी मंडल भी कम खांटी अफसर नहीं है। उन्होंने भी बैंकर को अपना दमखम दिखाया। उन्होंने बैंकों को साफ कर दिया कि पैसा तो उनके पास नहीं है, बेहतर है चेयरमैन की कुर्सी अपने साथ ले जाये। उन्हें तो कुर्सी तोड़ने के बजाये खड़े रहकर काम करने में ज्यादा मजा आता है। चेयरमैन की कुर्सी के प्रति बेरुखी देखकर बैंक अफसरों ने हैरानी जताई। ‘आये थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’, उनकी हालत ऐसी ही नजर आई। फ़िलहाल तो उन्होंने मौके से नौ दो ग्यारह होना मुनासिफ समझा।

न ख़ुदा मिला न विसाले सनम , आदिवासी मुख्यमंत्री की टूटी आस :

छत्तीसगढ़ की राजनीति में आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग लगभग दो दशक पुरानी है | संयुक्त मध्यप्रदेश के दौर से ही आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग ने राज्य में सामाजिक और राजनैतिक रूप से जोर पकड़ा था | नतीजतन कांग्रेस के तत्कालीन आलाकमान ने स्वर्गीय अजीत जोगी की बतौर आदिवासी मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी का फैसला लिया | खुद को आदिवासी करार देते हुए लगभग तीन सालों तक अजीत जोगी इस कुर्सी पर काबिज रहे | लेकिन बीजेपी ने उन्हें नकली आदिवासी करार देने में कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी | हालांकि सत्ता में आने के बाद बीजेपी नेताओं ने अजीत जोगी के फर्जी आदिवासी मामले को कांग्रेस के खिलाफ जमकर भुनाया | इस दौर में बीजेपी के आदिवासी नेताओं ने एक स्वर में साफ़ कर दिया कि अब प्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग खत्म हो चुकी है | रमन सिंह ही उनके पालनहार है , उनके मुख्यमंत्री रहते आदिवासियों का विकास हो रहा है और सामाजिक-आर्थिक संरक्षण भी | उधर कांग्रेस के आदिवासी नेता एक स्वर में आदिवासी नेतृत्व की मांग दोहराते रहे | कांग्रेस के सत्ता में आने के पूर्व ही आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग खत्म नहीं हुई , बल्कि इसकी आग भीतर ही भीतर सुलगते रही |  लेकिन पिछले दो सालों में यह लगातार दूसरा मौका है कि विश्व आदिवासी दिवस पर भी पार्टी के किसी भी नेता ने आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग को लेकर कोई नारा बुलंद नहीं किया | यहाँ तक कि सत्ता और संगठन दोनों ने ही इस मांग से तौबा कर लिया |  कांग्रेस के दिग्गज आदिवासी नेता भी आदिवासी मुख्यमंत्री की मांग को लेकर चुप्पी साधे हुए है | लिहाजा माना जा रहा है कि कांग्रेस में भी आदिवासी नेतृत्व की मांग दम तोड़ चुकी है | मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ही पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह की तर्ज पर आदिवासियों के पालन हार है | जाहिर है , अब प्रदेश में आदिवासी मुख्यमंत्री की जरूरत ना तो कांग्रेस को है , और ना ही बीजेपी को | हकीकत तो यह है कि आदिवासी समुदाय को “ना तो खुदा मिला और ना ही विसाले सनम” , आदिवासी इलाकों की हालत बीजेपी शासनकाल में जिस तरह की थी , आज भी हालत वही है |