रायपुर / भारत देश में जाति व्यवस्था, ऊंच नीच, जातियों में बसी कुठांओं का इतिहास काफी पुराना रहा है| देश में लोगों की मान्यताएं हैं कि भगवान सब जगह सबके लिए होते हैं लेकिन सवाल यही है क्या भगवान सबके लिए होते हैं? देश की एक महानता यह भी है कि हमारे रोम-रोम में राम रमें हैं| सुबह उठते ही राम का नाम और मृत्यु हो जाने पर राम नाम सत्य है| आज भले ही राजनीति को राग कर चुके लोगों के लिए भगवान राम ऐजेंडा या नारा क्यों ना हो लेकिन हमारे देश में एक राज्य ऐसा भी है जहां के एक समुदाय ने राम को अपने शरीर के हर हिस्से में धारण किया है|रामनामी समुदाय खुद को शबरी का वंशज मानता है | जिस तरह से माता शबरी के झूठे बेर खा कर भगवान राम ने उन्हें अपने विराट रूप के दर्शन कराए और अपने धाम में स्थान दिया | उसके उपरांत से यह वर्ग हर प्रहर राम नाम का जाप करते चला आ रहा है | रामनामियों का दावा है कि वे शशरीर भगवान राम के लिए समर्पित है | इसलिए वे सिर्फ शरीर ही नहीं बल्कि अपनी जिव्हा में भी राम नाम गुदवाते है |
छत्तीसगढ़ के रामनामी समंप्रदाय के बारे में जिनके लिए राम-राम और राम का नाम उनकी संस्कृति उनकी परंपरा और आदत का हिस्सा है| इस समुदाय के कण-कण में राम बसे हैं| राम का नाम इनके जीवन में हर समय गुंजायमान ह| रामनामी सामाज अपने शरीर के रोम-रोम में राम के नाम को बसा कर रखते हैं| यानि पूरे बदन पर राम का नाम गुदना गुदवाते हैं, यहीं नहीं इनके घरों की दीवारों और शरीर पर ओढ़ने वाली चादर पर भी राम का ही नाम होता है| राम के नाम से अभिवादन की परंपरा तो पूरे देश में निभाई जाती है लेकिन इस समुदाय के बीच में राम इस कदर बसें हैं कि, ये हर एक आदमी को राम के नाम से ही पुकारते हैं| इस संप्रदाय की खासियत यही है कि, इनके राम, मंदिर या अयोध्या वाले नहीं हैं बल्कि पेड़ पौधै प्रकृति और लोग हैं|
जब भारत में भक्ति आंदोलन चरम पर था, सभी धर्म के लोग अपने-अपने अध्येय देवी देवताओं की रजिस्ट्री करा रहे थे उस समय दलित की श्रेणी में रखे जाने वाले लोगों के हिस्से में न तो मंदिर आया ना ही मूर्ति| और तो और इस तबके के लोगों के हिस्से से मंदिर के बाहर खड़े रहने तक का हक छीन लिया गया| लगभग एक सदी पहले इस समाज को छोटी जाति का कहकर मंदिरों में प्रवेश से मना कर दिया गया था, इसके आलावा इन्हें पानी के लिए सामूहिक कुओं का उपयोग करना भी मना था| जब मंदिर वाले धर्म के सारे रास्ते बंद हो गए फिर शुरु हुई इनकी भगवान राम के प्रति आस्था|
आज भी भारत के कुछ हिस्से ऐसे हैं जहां पर भगवान का नाम किसी छोटी जाति के लोगों के मुंह से निकल जाता है तो भगवान ही दूषित हो जाते हैं| ऐसे में भक्ति आंदोलन का ये दौर था, जब जात से छोटे इंसान से ईश्वर को अलग कर दिया गया| ऐसे में राम नाम को अपना कर रामनामी कहे जाने वाले लोगों ने मदिंर और मुर्ति दोनों का त्याग करके राम को ही अपने कण-कण में बसा लिया |देश में जाति की धारा ने जिन लोगों को काट कर अलग कर दिया उनके लिए अदम गोंडवी की एक कविता गहराई से चरितार्थ होती है|
लेकिन अब आस्था से सताए इन अनोखे राम भक्तों की जिद है कि भगवन राम से इनकी पहचान अलग न हो ये जहां देखे इन्हें राम ही दिखाई दे| ये समाज अपनी इस परंपरा को लगभग 20 पीढ़ी से निभाता आ रहा है और राम का नाम ही है जो देश दुनिया में इन्हें अलग पहचान दे रहा है| ये समाज संत दादू दयाल को अपना मूल पुरुष मानता है, ये संप्रदाय सिर्फ राम का नाम ही शरीर पर नहीं गुदवाता बल्कि अहिंसा के रास्ते पर भी चलता है| ये न झूठ बोलते हैं न ही मांस खाते हैं| यह राम कहानी इसी देश में बसने वाले एक संप्रदाय रामनामी की है| जिनकी पहचान महज उनके बदन पर उभरे राम के नाम सिर पर विराजते मोर मुकुट से है, इस समुदाय की विचित्रता को देखना है तो एक बार छत्तीसगढ़ के कुछ गांवों में होने वाले भजन मेंले में जरूर शामिल हो कर देखिए…
1890 में एक दलित युवक परशुराम ने हिंदु परंपरा से खुद के सामाज को कटते देख कर की थी| रामनामी समाज के लोग मूर्ति पूजा और मंदिर जाने पर यकिन नहीं रखते हैं लेकिन राम का नाम बदन पर गुदवाना इनकी परंपरा और संस्कृति का हिस्सा है| इस समाज में पैदा हुए लोगों के लिए शरीर के कुछ हिस्सों में टैटू बनवाना जरूरी है| परंपरा है कि 2 साल की उम्र होने तक बच्चों की छाती पर राम नाम का टैटू बनवाना अनिवार्य है|
ये भी पढ़े : कोरोना ने किया इस परिवार को तबाह, पति की मौत के बाद पत्नी और बेटे-बेटी की आत्महत्या, एक ही झटके में पूरा परिवार ख़त्म
आज भले ही शहरो में टैटू बनवाना फैशन का एक हिस्सा है लेकिन एक सदी से चली आ रही इस समुदाय की परंपरा को इनकी नयी पीढ़ी अपना नहीं पा रही है| कुछ लोग गोदना से होने वाले दर्द की वजह से इस प्रथा को छोड़ रहे हैं तो कुछ लोग रोजगार के कारण | रामनामी समाज ने अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए कानूनन रजिस्ट्रेशन भी कराया है| ये हर 5 साल में अपने मुखिया का चुनाव करते हैं और अपने मुखिया का अनुसरण करते हैं| लेकिन शायद इनकी नयी पीढ़ी की वजह से या समाज में हो रहे लगातार बदलाव से इस संप्रदाय की यह अनूठी परंपरा आने वाले वक़्त में शायद खत्म हो जाए |