रायपुर / दिल्ली : छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद अंतिम सांसे गिन रहा है, राज्य के तमाम इलाको से नक्सली दलम का सरेंडर लगातार जारी है। बस्तर में तो हथियार डालने वाले नक्सलियों का ताँता लगा हुआ है। बंदूक से क्रांति नहीं आ सकती अलबत्ता ये सहायक जरूर है, इस तथ्य से भली -भांति अवगत होने के बाद देश – प्रदेश से शहरी नक्सली हो या फिर जंगलो के भीतर हथियारबंद दलम, दोनों ही मोर्चो पर रोजाना कई जत्थे देश की मुख्यधारा में शामिल हो रहे है। नक्सली उन्मूलन की अंतिम डेड लाइन मार्च 2026 के पूर्व ही माना जा रहा है, कि देश से लाल आतंक का सफाया हो जायेगा। नक्सली क्रांति के आधार स्तम्भ माने जाने वाले हिड़मा को भी हालिया सुरक्षाबलों ने आंध्रप्रदेश में मौत के घाट उतार दिया है। इससे नक्सलवाद की रीढ़ बुरी तरह से टूट चुकी है।

हिडमा वही दहशत का नाम था, जिस पर कम से कम 26 बड़े हमलों का मास्टरमाइंड होने का आरोप था। 43 वर्षीय माड़वी हिडमा 2013 के दरभा घाटी नरसंहार और 2017 का सुकमा हमला सहित कम से कम 26 सशस्त्र हमलों में नेतृत्व कर चूका है। आंध्रप्रदेश पुलिस के एक अभियान में माडवी हिडमा और 5 अन्य माओवादियों को अल्लूरी सीताराम राजू (ASR) जिले के मारेदुमिल्ली में हालिया मार गिराया गया था। छत्तीसगढ़ के सुकमा के पुवर्ती इलाके में 1981 में हिडमा का जन्म हुआ था। वह नक्सलियों की PLGA बटालियन नंबर 1 का प्रमुख और सीपीआई (माओवादी) की केंद्रीय समिति का सबसे कम उम्र का सक्रिय सदस्य बताया जाता है। यह भी बताया जाता है कि झीरम घाटी नरसंहार में हिड़मा की मुख्य भूमिका थी। दावा तो यह भी किया गया कि वह कुछ प्रभावशील कांग्रेसी नेताओं के संपर्क में था, इसमें कांग्रेस के तत्कालीन विधायक भूपेश बघेल और बस्तर के कोंटा से विधायक कवासी लखमा का नाम प्रमुखता से लिया जाता है।

21 नवंबर , 2023 को रायपुर में छत्तीसगढ़ के तत्कालीन मुख्यमंत्री भू – पे बघेल ने SIT का गठन कर दावा किया था, कि अब छत्तीसगढ़ पुलिस इस कांड की जांच करेगी। किसने किसके साथ मिलकर क्या षड्यंत्र रचा था। सब साफ हो जाएगा। उन्होंने कहा था कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला राज्य के लिए न्याय के दरवाजे खोलने जैसा है।

दरअसल, झीरम घाटी नक्सली हमले के सिलसिले में प्रदेश पुलिस की जांच के खिलाफ दायर एनआईए की याचिका सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दी थी। मई 2013 में बस्तर के झीरम घाटी में हुए नक्सली हमले में मृत कांग्रेस नेता उदय मुदलियार के बेटे ने इस हमले के पीछे बड़ी साजिश की आशंका जताई थी, और इसकी जांच की मांग को लेकर पुलिस में मामला दर्ज कराया था, जिसके बाद एनआईए ने अदालत का दरवाजा खटखटाया था। कांग्रेस का दावा है कि इसमें झीरम कांड दुनिया के लोकतंत्र का सबसे बड़ा राजनीतिक हत्याकांड था, बता दें कि बस्तर जिले के दरभा इलाके की झीरम घाटी में 25 मई 2013 को नक्सलियों ने कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हमला कर दिया था, जिसमें तत्कालीन प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नंद कुमार पटेल, उनके बेटे, पूर्व नेता प्रतिपक्ष महेंद्र कर्मा, पूर्व केंद्रीय मंत्री विद्याचरण शुक्ल समेत 29 लोगों की मौत हो गई थी।

बस्तर जिले की पुलिस ने तब दरभा थाने में घटना की एफआईर दर्ज की थी। बाद में एनआईए ने इसकी जांच शुरू की थी। एनआईए ने अपनी जांच पूरी करने के बाद आरोप पत्र दायर किया था, जिसमें आज भी सुनवाई जारी है। इस बीच कांग्रेस के बघेल फिर सुर्ख़ियों में है। उन्होंने झीरम घाटी के सबूतों को सार्वजानिक करने का एलान तो किया था। बतौर मुख्यमंत्री बघेल ने 5 वर्ष तक सत्ता का सुख तो भोगा लेकिन कभी भी उन सबूतों को जाहिर नहीं किया। उन्होंने सबूतों के जेब में होने का दावा कर प्रदेश की आम जनता समेत जाँच एजेंसियों को भी हैरत में डाल दिया था। लेकिन कभी भी न तो खुद जाँच एजेंसियों के समक्ष उपस्थित हुए और न ही हकीकत सामने लाने में कोई दिलचस्पी दिखाई। बघेल के तमाम बयान सिर्फ सुर्खियां बटोरते रहे जबकि जनता और पीड़ित आज भी इंसाफ की राह तक रहे है। तो क्या बघेल भी नक्सलियों के सहारे सत्ता का संचालन कर रहे थे। वो नक्सलवाद के हिड़मा के संपर्क में भी थे। यही हाल कवासी लखमा का बताया जाता है।

यह भी बताया जाता है कि कांग्रेसी नेताओं को मौत के घाट उतारने के दौरान कवासी लखमा भी मौंके पर मौजूद थे ? नक्सलियों ने उनकी जान बख्श दी थी, उनकी ऊँगली में भी ”चोट” तक नहीं आई थी। सही सलामत जंगल से वे बाहर आये और सत्ता का सुख भोगा। जबकि कांग्रेस की अग्रिम पंक्ति के ज्यादातर नेताओं की शहादत ने प्रदेश के लोगों को हिला का रख दिया था। कांग्रेस के सत्ता में आने के बाद विशेष दिलचस्पी लेते हुए बघेल ने अनपढ़ होने के बावजूद लखमा को आबकारी जैसे महत्वपूर्ण महकमे का कैबिनेट मंत्री बना कर पुरुस्कृत किया था। हालांकि पर्दे के पीछे से क्या खेल किया गया, यह जग जाहिर है, हजारों करोड़ का शराब घोटाला अंजाम देकर पूर्व मुख्यमंत्री और उसकी टोली ने कवासी लखमा जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया है। आदिवासी नेता कवासी लखमा झीरम कांड के महत्वपूर्ण चश्मदीद गवाह थे। इन वर्षो में उन्होंने ने भी इस नरसंहार की हकीकत बयां करने के मामले में अपने कदम पीछे खींच लिए थे। उन्होंने जाँच एजेंसियों को पुख्ता सबूतों की जानकारी देने के मामले में कांग्रेस सरकार के पूरे 5 साल तक चुप्पी साधे रखी। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की तत्कालीन भू-पे सरकार की नक्सलियों के प्रति नरमी कोई नई बात नहीं है। सत्ता हथियाने के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री और उसकी वर्दीधारी टोली ने नक्सली उन्मूलन अभियान की हवा निकालने में कोई कसर बाकि नहीं छोड़ी थी। पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों के बीच कमजोर कड़ी के दर्जनों मामले इसी दौर में उस समय सामने आये थे, जब पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों को नक्सलियों ने जानमाल का भारी – भरकम नुकसान पहुंचाया था।

जानकारों के मुताबिक विभिन्न नक्सली दलम को तत्कालीन बघेल सरकार का भरपूर राजनीतिक और प्रशासनिक संरक्षण मुहैया होने से सुरक्षा बलों को शहादत का सामना करना पड़ा है। झीरम घाटी नक्सली हमले की जांच को लेकर कांग्रेस हमेशा भाजपा पर दोषारोपण करती रही है, लेकिन प्रदेश में सत्ता में 5 वर्ष तक काबिज़ होने के बावज़ूद ना तो पुख़्ता सबूत उजागर किये गए और न ही NIA की जांच में कोई सहयोग किया गया। कांग्रेस के बड़े नेता भी तत्कालीन मुख्यमंत्री बघेल पर सबूत पेश करने को लेकर कोई दबाव भी नहीं बना पाए थे। इस दौर में पुलिस का सूचना तंत्र सुनियोजित रूप से कमजोर कर दिया गया था। इसमें बघेल के विश्वासपात्र 2001 बैच और 2004 बैच के आईपीएस अधिकारी क्रमशः आनंद छाबड़ा और अजय यादव की कार्यप्रणाली को जिम्मेदार ठहराया जाता है।

जानकारों के मुताबिक, दोनों ही अधिकारियों ने बघेल के निर्देश पर नक्सल उन्मूलन अभियानों को भीतरी और बाहरी रूप से सुनियोजित नुकसान पहुंचाया था। इसके लिए पुलिस तंत्र का बड़े पैमाने पर दुरुपयोग किया गया था। पुलिस मुखबिरी से जुड़े आधुनिक डिजिटल यंत्रो और अन्य संसाधनों का उपयोग तत्कालीन मुख्यमंत्री के हितो को ध्यान में रख के किया गया। जबकि सेटेलाइट समेत अन्य डिजिटल संसाधनों की उपयोगिता को लेकर पुलिस और सुरक्षा बल आये दिन दो – चार होते रहे। नतीजतन कई मौंकों पर सूचना के अभाव में नक्सली एम्बुश में फंसे जवानो को जानमाल का नुकसान उठाना पड़ा था। बताते है कि भू – पे राज में नक्सलवाद का पलड़ा भारी करने के लिए प्रदेश के तत्कालीन ख़ुफ़िया प्रमुखों ने छत्तीसगढ़ शासन और केंद्र सरकार को गुमराह करने के लिए कई आपराधिक पैतरे आजमाए थे।

कांग्रेस राज के 5 वर्ष के कार्यकाल में 250 करोड़ से भी ज्यादा की नक्सली मुखबिरी फंड की रकम तत्कालीन ख़ुफ़िया प्रमुखों ने राजनैतिक रैलियों और कांग्रेसी नेताओं की तीमारदारी में फूंक दिए थे, बची कुची रकम भी साल दर साल तत्कालीन IG इंटेलिजेंस ही डकार गए थे। नक्सली मोर्चो में SS फंड की समुचित रकम के न पहुंच पाने से पुलिस का सूचना तंत्र लचर हो गया था। इसका गंभीर ख़ामियाजा पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों को उठाना पड़ा था। बताया जाता है कि SS फंड की सालाना 50 करोड़ से ज्यादा की रकम सिर्फ कागजो में ही खर्च कर दी गई थी। इस मद के इंटरनल ऑडिट की मांग सालो से की जा रही है। लेकिन कांग्रेस के बाद बीजेपी सरकार में भी कायम दबदबे से दागी अफसरों की टोली का बाल भी बांका नहीं हुआ। नक्सली मामलो के जानकारों के मुताबिक छत्तीसगढ़ में बघेल और उसके गिरोह में शामिल आईपीएस अधिकारियो की टोली नक्सलवाद की जड़े मजबूत करने के लिए दिन – रात एक किये हुए थे। इस गिरोह के कदम यही नहीं थमे, बल्कि दागी आईपीएस अधिकारियों ने इसी तर्ज पर हजारों करोड़ के महादेव एप्प सट्टा घोटाले के प्रचार – प्रसार और कारोबार की कमान संभाल रखी थी। करोडो के कोल खनन परिवहन घोटाले में भी लगभग आधा दर्जन आईपीएस अधिकारियो की भूमिका सामने आई है। साफ़ है कि चाहे नक्सल मोर्चा हो या फिर दैनिक अपराध, दोनों ही मैदानों में पुलिस तंत्र के प्रभावशील अधिकारी अपनी कार्यप्रणाली का प्रदर्शन संविधान के खिलाफ गैरकानूनी कदमो के तहत उठा रहे थे। प्रदेश में नक्सलियों की समानांतर सरकार की जड़े मजबूत करने के लिए आईपीएस अधिकारियो की भूमिका की स्पष्ट जाँच भी बेहद जरुरी बताई जाती है।

एक रिपोर्ट के अनुसार, कांग्रेस के भू-पे राज में वर्ष 2018 में 275, 2019 में 182, 2020 में 241, 2021 में 188 और 2022 में 246 हमले माओवादियों ने पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों पर किए थे। साल 2024 में जवानों ने 1033 नक्सलियों को गिरफ्तार किया, जबकि 925 ने आत्मसमर्पण किया था।आंकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में 2020 से 2023 के चार सालों में नाम मात्र के 141 माओवादी मारे गये थे. जबकि इन वर्षो में पुलिस और सुरक्षा बलो की शहादत और स्थाई रूप से अपंगता के प्रकरणों का आंकड़ा हैरान करने वाला है। यह भी गौरतलब है कि राज्य में भाजपा की सत्ता आने के बाद अकेले 2024 में सुरक्षाबलों ने 223 माओवादियों को मुठभेड़ में मार गिराया था। बीजेपी के इन दो वर्षो के कार्यकाल में 2200 से ज्यादा नक्सली आत्म समर्पण कर चुके है।

दावा किया जा रहा है, कि सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं बल्कि आने वाले 3 महीनो के भीतर देश से नक्सलवाद का सफाया हो जायेगा। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने साफ़ किया है कि भारत वामपंथी उग्रवाद को खत्म करने के बिल्कुल करीब है। रायपुर में 60वें डीजीपी-आईजीपी सम्मेलन में विश्वास जताया कि अगले डीजीपी-आईजीपी सम्मेलन से पहले देश पूरी तरह से नक्सलवाद मुक्त हो जाएगा। उन्होंने बताया कि पिछले सात सालों में 586 गढ़वाले पुलिस स्टेशनों का निर्माण किया गया है, जिसके कारण नक्सल प्रभावित जिलों की संख्या 2014 में 126 से घटकर अब सिर्फ 11 रह गई है। बहरहाल, कम्युनिस्ट घोषणापत्र’ और अपने अन्य लेखों में कार्ल मार्क्स का पूंजीवादी समाज में ‘वर्ग संघर्ष’ का फार्मूला देश में न कामयाब साबित हुआ है। बारी अब पुलिस तंत्र और राजनीति के उन आस्तीनों के सांप की है, जिन्होंने नक्सलवाद के दंश को भी अपनी अवैध आमदनी का जरिया बना लिया था।
