दिल्ली/रायपुर: छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद के खात्मे के साथ ही देश में पृथक दंडकारण्य राष्ट्र की स्थापना के नक्सली मंसूबों पर पानी फिर गया है। पशुपति से लेकर तिरुपति तक फैले रेड कॉरिडोर में अचानक मायूसी छा गई है, खासतौर पर देश के चुनिंदा राजनैतिक मोर्चों में दंडकारण्य राष्ट्र की स्थापना का नक्सली मंसूबा उस समय धरा की धरा रह गया जब चर्चित नक्सली कमांडर और थिंक टैंक बसव राजू को छत्तीसगढ़ के नारायणपुर में सुरक्षा बलों द्वारा मार गिराया गया। सीपीआई (माओवादी) महासचिव बसव राजू, पृथक दंडकारण्य राष्ट्र की स्थापना के लिए जोर-शोर से जुटे हुए थे। वे एक राजनैतिक दल के अल्ट्रा लेफ्टिस्ट विंग के ना केवल करीबी थे, बल्कि देश को विभाजित कर नए दंडकारण्य राष्ट्र निर्माण में मुख्यधारा में शामिल राजनैतिक दलों को भी साधने में कामयाब रहे थे।

छत्तीसगढ़ के नारायणपुर में सुरक्षा बलों द्वारा बसव राजू के मार गिराये जाने की खबर जंगल में आग की तरह फैली हुई है। इस राज्य से सटे महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, आंध्रप्रदेश-तेलंगाना, ओडिशा और झारखंड तक फैले नक्सलवाद की जड़ों पर पुलिस और केंद्रीय सुरक्षाबलों का प्रहार सुर्ख़ियों में है। इन राज्यों के सुदूर जंगलों में बसे माओवादी इलाकों में चाय-पान की झोपड़ियों और गांव की चौपालों में नक्सलवाद के खात्मे का पैगाम लोगों के सिर चढ़ कर बोल रहा है। जबकि नक्सली सहानुभूति जाहिर करने वाले सैकड़ों ग्रामीण भी अब माओवादियों से दूरियां बनाना ही बेहतर समझ रहे है। बस्तर की वादियों से 2 दर्जन से ज्यादा माओवादियों के शव हासिल करने के बाद सुरक्षा बलों ने साफ़ कर दिया है कि इस विचारधारा का अंत हो चूका है, भटके हुए नौजवानों को अब देश की मुख्यधारा में शामिल होना पड़ेगा, अन्यथा उनकी भी खैर नहीं।

यही नहीं पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों ने यह भी दो टूक साफ कर दिया है कि आत्मसमर्पण की बार-बार अपील की अब कोई जरुरत नहीं, इशारा काफी है कि आने वाले दिनों में देश के समूचे हिस्से से नक्सलवाद गुजरे ज़माने की विचारधारा साबित होगी। देश में नक्सलवाद के खात्मे की डेड लाइन 31 मार्च 2026 की अवधि पूरी होने के 10 माह पहले ही छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद का लगभग सफाया हो गया है। इसके साथ ही राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री भूपे बघेल का दंडकारण्य राष्ट्र के प्रधानमंत्री बनने का सपना भी ‘चखनाचुर’ हो गया है। भारत सरकार की अगुवाई में पुलिस और केंद्रीय सुरक्षाबलों ने दंडकारण्य राष्ट्र की स्थापना के मंसूबों पर पानी फेर दिया है।

राजनीति के कई जानकार तस्दीक करते है कि मुख्यमंत्री की कुर्सी हथियाने के बाद प्रदेश के चर्चित नेता के सिर पर अचानक प्रधानमंत्री बनने का भूत सवार हो गया था। इसके लिए उन्होंने मुख्यमंत्री के ढ़ाई-ढ़ाई साल के एक सैद्धांतिक फैसले को दर किनार कर छत्तीसगढ़ सरकार की नाक के नीचे एक विशेष दलम का गठन किया था। ‘दंडकारण्य’ नामक देश की स्थापना के लिए क्रांति लाने के विश्वास के साथ तत्कालीन मुख्यमंत्री ने सरकारी तिजोरी से लगभग 300 करोड़ रुपये पानी की तरह बहा दिए थे। तत्कालीन कांग्रेस सरकार के विभिन्न घटकों के अंदर-बाहर इतनी मोटी रकम की बंदरबांट को लेकर मचे हंगामे को शांत करने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री बघेल ने अपनी इस कवायत को राजीव मितान क्लब का नाम दे दिया था।

राजनैतिक सूत्रों के मुताबिक दंडकारण्य देश के पहले प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने के लिए बड़ी चालाकी के साथ पूर्व मुख्यमंत्री बघेल पार्टी की ‘अल्ट्रा लेफ्टिस्ट विंग’ को मजबूत करने में जुटे थे। बताया जाता है कि राजीव मितान क्लब की आड़ में दंडकारण्य राष्ट्र के नव-निर्माण की नई मुहीम छेड़ी गई थी। प्रदेश के नौजवानो को इस क्लब के बैनर तले एकत्रित कर नई खूनी क्रांति को अंजाम देने से पूर्व आम जनता ने तत्कालीन मुख्यमंत्री बघेल और उनकी सरकार को सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था। यह भी बताया जाता है कि राष्ट्र विरोधी ताकतों को बल देने के लिए मुख्यमंत्री की शक्तियों का दुरुपयोग करने का यह बड़ा गंभीर मामला तत्कालीन मुख्यमंत्री बघेल के खिलाफ मुँह बांये खड़ा है।

राजीव मितान क्लब ही नही बल्कि झीरम घाटी नरसंहार मामले में जांच एजेंसियों को सबूत मुहैया कराने का पूर्व मुख्यमंत्री बघेल का दावा-वादा भी कम हैरतअंगेज नहीं आंका जा रहा है। कांग्रेस के कई नेताओं की शहादत को अपूरणीय क्षति बताते हुए पूर्व मुख्यमंत्री ने मामले की उच्च स्तरीय जांच का एलान किया था। इसके लिए अब होगा इंसाफ ? कांग्रेसी कार्यकाल में जैसे नारे भी बुलंद किये गए थे। लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी पर पैर ज़माने के बाद बघेल ने झीरम घाटी नरसंहार की असलियत सामने लाने के लिए कभी भी अपने दावों-वादों पर गौर नहीं फ़रमाया था। राजनीति के जानकारों के मुताबिक झीरम घाटी नरसंहार के पुख्ता सबूतों को जेब में रखने का बघेल का दावा पूरे 5 सालों तक चर्चा में तो रहा, लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री ने अपने पद पर बने रहते उन सबूतों को जांच एजेंसियों के हाथों तक पहुंचाने की कभी भी जहमत तक नहीं उठाई थी।

छत्तीसगढ़ में नक्सली वारदातों में लंबे समय से जेल की हवा खा रहे आदिवासी नौजवानों की रिहाई को लेकर पूर्व चीफ सेक्रेटरी निर्मला बुच के प्रयासों पर पानी फेरने के मामलों में भी तत्कालीन मुख्यमंत्री की कार्यप्रणाली विवादों से घिरी बताई जाती है। यह भी बताया जाता है कि नक्सल प्रभावित इलाकों में आदिवासी जनता का वोट हासिल करने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री की टोली ने जेल में बंद निर्दोष आदिवासी नौजवानों की रिहाई का मुद्दा छेड़ा था। लेकिन पूर्व मुख्यमंत्री के वादे और दावे, इस मोर्चे पर भी खोखले साबित हुए थे। निर्दोष आदिवादियों की रिहाई का मामला इन वर्षों में अपेक्षित गति नहीं पकड़ पाया। इतने सालों बाद भी कई निर्दोषों की जेल से रिहाई अटकी हुई है।

बतौर मुख्यमंत्री भूपे बघेल की अगुवाई में कांग्रेस सरकार का 5 वर्ष का कार्यकाल गिल्ली-डंडा, गेड़ी-नृत्य, भौरा-लट्टू समेत अन्य देशी-विदेशी उछल-कूद में बीत गया। लेकिन इन वर्षों में नक्सली वारदातों पर प्रभावी रोक लगाने के मामले में बघेल ने कोई रूचि नहीं दिखाई थी। कभी संसाधनों की कमी तो कभी केंद्र और राज्य के बीच बेहतर समन्वय स्थापित नहीं होने से दंडकारण्य देश के समर्थकों को छत्तीसगढ़ में पैर ज़माने का भरपूर मौका मिला था। राज्य में नक्सलवाद के खात्मे के साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री बघेल के कारनामों को लेकर राजनैतिक गलियारा गरमाया हुआ है।

यह भी बताया जाता है कि नक्सली मोर्चे पर पूर्व मुख्यमंत्री बघेल अक्सर चुप्पी साधे रहते थे। नाम ना जाहिर करने की शर्त पर तत्कालीन मुख्यमंत्री के सचिवालय में पदस्थ जिम्मेदार अफसर दबी जुबान से स्वीकार करते है कि विभिन्न नक्सलियों और उनके दलम पर तत्कालीन मुख्यमंत्री की भरपूर कृपा बरस रही थी। इस अवधि में पुलिस और केंद्रीय सुरक्षा बलों की जरूरतें पूरी करने को लेकर आयोजित होने वाली बैठकों तक से तत्कालीन मुख्यमंत्री दूरियां बना लेते थे। इसका विपरीत प्रभाव नक्सल विरोधी अभियान पर पड़ा था। बतौर राजनेता बघेल के साथ कदम ताल करने वाले कई नेता भी यह तस्दीक करते है कि मुख्यमंत्री बनने के बाद भूपे बघेल के अरमान चौथे आसमान पर थे। वे अचानक प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे थे।

उन्होंने आलाकमान को खुश करने के लिए छत्तीसगढ़ जैसे गरीब प्रदेश को पहले कांग्रेस का एटीएम बनाया फिर खुद इसके राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने की जुगत में लग गए थे। हालाँकि नाकामी उनके हाथ लगी। बताते है कि बघेल भी पीएम बनने के लिए कांग्रेस के भीतर खुद की दावेदारी मजबूत करने में जुटे थे। इस बीच देश में मोदी सरकार तीसरी बार सत्ता में आने में कामयाब रही। इसके चलते कांग्रेस के कई नेताओं की तर्ज पर तत्कालीन मुख्यमंत्री बघेल का भारत का पीएम बनने का सपना एकाएक टूट गया था, पार्टी के भीतर कोई संभावनाएं नजर नहीं आने पर बघेल ने दंडकारण्य का रुख किया था। इस हवा हवाई देश के पहले प्रधानमंत्री के रूप में उनके द्वारा खुद की ताजपोशी की तैयारी शुरू कर दी गई थी। प्रदेश में बघेल का नक्सलवाद प्रेम पूरे 5 वर्ष सुर्ख़ियों में बताया जाता है।

सूत्र तस्दीक करते है कि दंडकारण्य देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए तत्कालीन मुख्यमंत्री ने पार्टी के भीतर अल्ट्रा लेफ्टिस्ट विंग को काफी प्रभावशाली बनाया था। राज्य में 2018 के विधानसभा चुनाव की बेला में रुचिर गर्ग और विनोद वर्मा जैसे कार्यकुशल पत्रकारों को कांग्रेस का चोला उढ़ा कर राजनैतिक रूप से उपकृत किया गया था। इन्हे मोटे वेतन भत्तों पर बतौर सलाहकार अपने ‘हरम’ में नियुक्ति दी गई थी। मीडिया मैनेजमेंट के नाम पर पार्टी की अल्ट्रा लेफ्टिस्ट विंग ने मैदानी इलाकों के उन पत्रकारों को निशाना बनाया था, जो बघेल की नीतियों और गतिविधियों पर करीब से नजर रख रहे थे।

प्रदेश में दर्जनों निर्दोष पत्रकारों को कोर्ट-कचहरी के चक्कर में व्यस्त रखने और बेवजह जेल की हवा खिलाने के मामले में अल्ट्रा लेफ्टिस्ट विंग की महत्वपूर्ण भूमिका बताई जाती है।जानकार तस्दीक करते है कि पूर्व मुख्यमंत्री की छवि दंडकारण्य समर्थक और नक्सलियों के हमदर्द के रूप में स्थापित करने के लिए सरकारी संसाधनों का भी बेजा इस्तेमाल किया गया था। प्रजातंत्र की दुहाई देने वाले पत्रकारों को प्रताड़ित करने और दंडकारण्य राष्ट्र के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले कलमकारों को उपकृत करने के लिए कांग्रेस की अल्ट्रा लेफ्टिस्ट विंग ने सरकारी प्रचार-प्रसार माध्यमों तक पर अपना कब्ज़ा जमा लिया था।

जानकारों के मुताबिक नक्सल प्रभावित राज्यों में तत्कालीन मुख्यमंत्री बघेल को सर्वमान्य नेता के रूप में स्थापित करने पर पूरे 5 सालों तक विशेष जोर दिया गया था। नक्सल प्रभावित इलाकों में बघेल का रुतबा किसी बादशाह या सर्वमान्य नेता के रूप में दिखाई देता था। जबकि ऐसे इलाकों में सामान्य नेता सुरक्षा व्यवस्था के बावजूद आवाजाही करने से हिचकिचाते थे। राज्य में नक्सलवाद और भूपे वाद एक-दूसरे के पूरक बताये जाते है। फ़िलहाल, बस्तर में नए युग का आगाज देखा जा रहा है।

यहाँ डटे पुलिस और केंद्रीय सुरक्षाबलों के जवान जहाँ कामयाबी की नई इबारत लिख रहे है, वही एक महत्वपूर्ण राजनैतिक दल के गलियारे में मायूसी छाई है। इस दल के विभिन्न घटकों में शामिल अल्ट्रा लेफ्टिस्ट विंग के कर्ताधर्ताओं के सामने भी अब कोई विकल्प शेष नहीं नजर आ रहा है। देश की मुख्य धारा में शामिल होने का एक मात्र विकल्प पर वे भी विचार करने लगे है। राजनैतिक के जानकार तस्दीक करते है कि नक्सलवाद के खात्मे की करीब आती डेड लाइन, अल्ट्रा लेफ्टिस्ट विंग पर भारी गुजर रही है। इस विंग के कई सदस्य कांग्रेस का हाथ छोड़ नए उपक्रमों की तलाश में जुटे है।

दरअसल, जंगलों में निवासरत देश की एक बड़ी आबादी को जल, जंगल और जमीन से जुड़े लोक-लुभावन मुद्दों में उलझा कर दंडकारण्य राष्ट्र की स्थापना को हवा देने वाले विशेष अभियानों का अब दम निकल चूका है। भारत सरकार ने ऐसी ताकतों की कमर तोड़ कर रख दी है। देश के दर्जनभर से ज्यादा राज्यों के एक बड़े भू-भाग में विभाजन के मंसूबों से ओतप्रोत नक्सलियों की समान्तर सरकार की गतिविधियों पर अब पूर्ण विराम लगने का अवसर नजदीक नजर आने लगा है। बहरहाल, बंदूक के बल पर नए राष्ट्र दंडकारण्य के गठन की कवायत अब मुंगेरी लाल के हसीन सपने तक ही सीमित नजर आने लगी है। देश के दो दर्जन से ज्यादा राज्य अब नक्सलवाद से मुक्ति के नए दौर का आगाज करने में जोर-शोर से जुटे है।