छत्तीसगढ़ में धर्म परिवर्तित ईसाई आदिवासियों और परंपरागत आदिवासियों के बीच वर्ग संघर्ष जोरो पर, सुप्रीम कोर्ट में गूंज, ईसाई युवक की याचिका पर फैसला सुरक्षित… 

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नई दिल्ली/रायपुर: 1सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन एक याचिका की गूंज से प्रदेश के आदिवासी बाहुल इलाकों में जारी वर्ग संघर्ष की एक नई दास्तान सामने आई है। राज्य में परंपरागत आदिवासियों और धर्म परिवर्तन कर ईसाई बने आदिवासियों के बीच वर्ग संघर्ष जोरो पर है। हालात ये है कि मृतक व्यक्तियों के अंतिम संस्कार को लेकर भी दोनों पक्ष आमने-सामने है। मामला इतना तूल पकड़ चूका है कि हालात से निपटने के लिए सुप्रीम कोर्ट तक विवाद जा पहुंचा है। इस मामले में अदालत ने मंशा जाहिर करते हुए कहा है कि शव दफ़नाने के इस प्रकरण में सभ्य और सौहार्दपूर्ण तरीके से समझौता चाहते हैं। हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित कर लिया है।

याचिकाकर्ता और मृतक के बेटे रमेश बघेल

यह मामला राज्य के उस इलाके बस्तर-जगदलपुर का है, जहाँ एक बड़ी आबादी नक्सलवाद से पीड़ित है। सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट के 9 जनवरी के एक आदेश को चुनौती देने वाली विशेष अनुमति याचिका पर अपना फैसला सुरक्षित रखते हुए कहा कि मृतकों को सभ्य तरीके से दफनाने के अधिकार को सबसे ज्यादा महत्व दिया जाना चाहिए। इसलिए हम चाहते हैं कि मामले को सौहार्द्रपूर्ण तरीके से सुलझाया जाए। याचिका में अपने ईसाई पादरी पिता को छिंदवाड़ा गांव के कब्रिस्तान में दफनाने मंजूरी मांगी गई थी, जिसे खारिज कर दिया गया था। याचिकाकर्ता की ओर से सीनियर एडवोकेट कॉलिन गॉजाल्विस ने राजस्व मानचित्रों के माध्यम से न्यायालय को बताया कि ऐसे कई मामले हैं, जहां ईसाई आदिवासियों को गांव में ही दफनाया गया।

पादरी सुभाष बघेल

उन्होंने उत्तर दिया कि इस मामले को अलग तरीके से देखा जा रहा है, क्योंकि व्यक्ति का धर्म परिवर्तन हुआ था। उन्होंने न्यायालय को राज्य द्वारा दायर जवाबी हलफनामे के माध्यम से बताया कि राज्य ने ईमानदारी से इस तर्क को स्वीकार कर लिया कि धर्म परिवर्तन करने वाले व्यक्ति को गांव में दफनाने की अनुमति नहीं दी जाएगी। छत्तीसगढ़ की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने राज्य के एडवोकेट जनरल के साथ एक नया हलफनामा दायर किया और पिछली कार्यवाही में दिए गए अपने तकों पर जोर दिया कि दफनाना ईसाई आदिवासियों के लिए निर्दिष्ट क्षेत्र में होना चाहिए, जो वर्तमान गांव से लगभग 20-30 किलोमीटर दूर है। उन्होंने तर्क दिया कि यह राज्य के लिए सार्वजनिक व्यवस्था का मामला है, इसलिए इसे संवेदनशीलता से संभाला जाना चाहिए।

हालांकि, जस्टिस बीवी नागरत्ना और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की खंडपीठ ने सवाल उठाया कि अचानक हिंदू आदिवासियों की ओर से आपत्ति कैसे आ गई, जबकि वर्षों से किसी ने ईसाई आदिवासियों और हिंदू आदिवासियों को एक साथ दफनाने पर आपत्ति नहीं जताई। जस्टिस नागरत्ना ने टिप्पणी की कि “तथाकथित” ग्रामीणों की ओर से आपत्ति “नई घटना” है। इससे पहले, हाई कोर्ट से याचिकाकर्ता ने दायर अपनी अर्जी में अपने ईसाई पादरी पिता को छिंदवाड़ा गांव के कब्रिस्तान में दफनाने मंजूरी मांगी गई थी, जिसे हाईकोर्ट द्वारा खारिज कर दिया गया था। 

सुनवाई के दौरान जस्टिस नागरत्ना ने जब सुझाव दिया कि याचिकाकर्ता की अपने पिता को अपनी निजी भूमि पर दफनाने की वैकल्पिक प्रार्थना पर विचार किया जा सकता है, तो सरकारी वकील मेहता ने इस पर आपत्ति जताई और कहा कि दफन केवल निर्दिष्ट स्थानों पर ही हो सकते हैं। उन्होंने जोर देकर कहा कि व्यक्ति को उचित ईसाई रीति-रिवाजों के साथ करकापाल गांव (मूल गांव से अलग) में दफनाया जाना चाहिए और इसके लिए राज्य एम्बुलेंस और पुलिस सुरक्षा प्रदान करेगा।

प्रतीकात्मक तस्वीर

हालांकि, गोंजाल्विस ने मेहता के इस तर्क को खारिज कर दिय। उन्होंने जोर देकर कहा कि याचिकाकर्ता अपने पिता को वहीं दफनाएगा, जहां उनके पूर्वजों को दफनाया गया था। उन्होंने चेतावनी दी कि अगर किसी अन्य चीज की अनुमति दी जाती है तो इससे ऐसे मामलों की शुरुआत होगी, जहां दलित व्यक्तियों को अगर धर्मांतरित किया जाता है तो उनके गांव में शव को दफनाने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

प्रतीकात्मक तस्वीर

याचिका के अनुसार, याचिकाकर्ता आदिवासी ईसाई है। उसके पिता की 7 जनवरी को लंबी बीमारी और बुढ़ापे की बीमारी के कारण मृत्यु हो गई थी, जिसके बाद उनका परिवार अंतिम संस्कार करना चाहता था और उनके पार्थिव शरीर को गांव के कब्रिस्तान में ईसाइयों के लिए निर्दिष्ट क्षेत्र में दफनाना चाहता था। एसएलपी के अनुसार, कुछ ग्रामीणों ने इसका आक्रामक रूप से विरोध किया और याचिकाकर्ता को गांव के कब्रिस्तान में दफनाने पर गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दी। फ़िलहाल, शीर्ष अदालत ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया है।